आज विश्व के क्षितिज पर जो कुछ भी घटित होता है उसका प्रभाव किसी न किसी रूप से प्रत्येक देश पर पड़ता है। इसलिए समाज के विभिन्न वर्गों में अपने अपने जीवन से संबंधित बातें जानने की जिज्ञासा होती है। व्यापारी व्यापार के बारे में, साहित्यकार साहित्यिक गतिविधियों की, समाजशास्त्री सामाजिक व्यवस्थाओं के संबंध में, वैज्ञानिक नए अविष्कारों की तथा राजनीतिक देश – विदेश की राजनीतिक घटनाओं की ताजा जानकारी चाहता है। यह सब जानने व समझने के कौतूहल के मूल में जो आवश्यकता नहीं है उसकी पूर्ति पत्रकारिता से होती है।
पत्रकारिता जनसंचार का वह माध्यम है जो सरकार और जनता के बीच संवाद का सेतु कहलाता है। जनसंचार के माध्यम इलेक्ट्रॉनिक मीडिया जैसे आकाशवाणी, इंटरनेट और दूरदर्शन भी हैं, परंतु प्रिंट मीडिया प्रेस का कुछ अलग ही महत्व है। प्रेस को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ भी कहा जाता है जिसके अंतर्गत समाचार पत्र और पत्रिकाएं आते हैं।
भारत में प्रकाशित हजारों समाचार पत्रों में से 41 ऐसे हैं जो अपनी शताब्दी मना चुके हैं परंतु समाचार पत्रों के पंजीयन का कार्य जुलाई 1956 से प्रारंभ हुआ। सन 1812 में मुंबई से प्रकाशित गुजराती भाषा का अखबार मुंबई समाचार सबसे पुराना है, जो पाठकों में अपना विशेष स्थान आज भी बनाए हुए हैं। देश में कुल 105443 ( 31 मार्च 2015 ) प्रकाशित होने वाले समाचार पत्रों में दैनिक, साप्ताहिक, पाक्षिक, मासिक तथा कुछ अन्य तरह की पत्रिकाएं भी हैं जो राज्य और केंद्र शासित प्रदेशों से निरंतर छप रहे हैं। देश की प्रमुख भाषा और विदेशी भाषाओं के अलावा भारत में सबसे ज्यादा समाचार पत्र 44557 हिंदी में प्रकाशित होते हैं, लेकिन 14083 अंग्रेजी में प्रकाशित होने वाले समाचार पत्रों का स्थान दूसरा है।
अतीत में हिंदी पत्रकारिता की परंपरा बड़ी गौरवमयी और गरिमामयी रही है जिसमें अनेक लोगों ने पत्रकारिता में कुछ नैतिक मूल्यों की स्थापना की और स्वाधीनता संग्राम से जोड़कर इसे नया आयाम दिया किंतु कालांतर में वह धारा क्षीण ही नहीं हुई बल्कि प्रदूषित भी लगने लगी और पत्रकारिता मिशन कम, व्यवसाय अधिक बन गई और व्यवसाय भी मात्र स्वयं के हित साधन तक सीमित होकर रह गया।
स्वाधीनता के पश्चात यों तो मूल्यों का अवमूल्यन जीवन के हर क्षेत्र में देखने को मिला परंतु पत्रकारिता में उसका प्रभाव कम गहरा नहीं रहा। सर्व विदित है कि देश के कतिपय बड़े अंग्रेजी अखबार मालिकों ने विगत वर्षों में सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय की बाहें मरोड़ कर कई रियायतें हथियाई हैं। अपने अखबार के बल पर ही मालिक व संपादक राज्यसभा अथवा विधान परिषद पहुंचने में भी सफल रहे। आज भी समाचार पत्रों के अनेक मालिक या संपादक राज्यसभा की सदस्यता के लिए लाइन लगाए मिल जाएंगे।
संपादक के निचले स्तर के पत्रकारों की स्थिति भी बेहतर नहीं है। संपादक के बाद समाचार संपादक, ब्यूरो-प्रमुख और संवाददाता भी स्वार्थ में सक्रिय हैं। इनके संबंध राजनीतिक, गैर राजनीतिक परंतु सामंतवादी दिग्गजों तथा पूंजी पतियों के साथ अच्छे होते हैं, बल्कि कभी-कभी तो यह संपादक से भी ज्यादा प्रभावशाली बन जाते हैं। विगत वर्षों में यह देखा गया है कि मामूली किस्म के पत्रकार छोटे से काल में जमीन आदि खरीदकर अखबार मालिक बन गए। कुछ पत्रकारों पर तो बड़े उद्योगपतियों से उगाही के आरोप भी लगाए जा चुके हैं। इसी का नतीजा यह है कि यदा-कदा ऐसी खबरें मिलती हैं कि ‘प्रेस बिक चुका है’।
आज लेखकीय एवं पत्रकारीय अर्थात कलम और अभिव्यक्ति की आजादी बेमानी हो चुकी है। संपादकों, लेखकोंऔर पत्रकारों को मालिक की परिक्रमा करने की आजादी है किंतु किसी मुद्दे पर उसके हितों के विपरीत लिखने की छूट नहीं।पत्रकारिता की इस दुर्दशा के लिए स्वयं पत्रकार भी कम दोषी नहीं है। उससे समाज चाहता है कि वह मात्र निष्पक्ष–सही सूचना ही उन तक नहीं पहुंचाएगा बल्कि उनके हितों के लिए संघर्ष में उसका सहभागी भी बनेगा। न्याय का पक्षधर बनकर अन्याय के विरुद्ध उनका साथ देगा लेकिन इधर कुछ वर्षों से पत्रकारिता, पत्रकारिता न रहकर केवल एक नौकरी पेशा बन कर रह गई है।
इक्कीसवीं सदी में प्रवेश के साथ-साथ अब हम एक नए युग की शुरुआत कर चुके हैं, इसलिए भारत में ऐसी पत्रकारिता की जरूरत है जो देश की लोकतांत्रिक एवं संवैधानिक व्यवस्थाओं को विषमगामी होने से रोक सके और जनतंत्र तथा उसके अंग के रूप में ‘प्रेस’ को मजबूत बनाने में सहायक हो। बदलते परिवेश में प्रिंट मीडिया जनतंत्र को पुख्ता करने के संघर्ष में अपनी ताकत लगा कर समाज को मजबूत बना सकता है और स्वयं को भी। आशा है कि वह इस सदी में अपने दायित्व का निर्वाह अवश्य करेगा ताकि उसकी भूमिका पर फिर कभी उंगली न उठ सके।
-राम सेवक वर्मा
विवेकानंद नगर, पुखरायां,
कानपुर देहात, उत्तर प्रदेश