सुर, साज़ और मौसीक़ी: नीलिमा पाण्डेय

जानकी बाई

हिन्दुस्तान में तवायफ़ संस्कृति का इतिहास राजशाही से अभिन्नता से जुड़ा हुआ है। कोठे, मुजरे, गीत-संगीत मनोरंजन का माध्यम थे। आमतौर पर माना जाता है कि सोलहवीं शताब्दी में मुगलों के संरक्षण में इस संस्कति ने अपने पैर जमाये। 1606 में जहांगीर के शासन काल में पहले सार्वजानिक मुजरे का उल्लेख मिलता हैं। वक़्त के साथ कुछ तवायफों ने अपने नृत्य और गायकी के कौशल से अच्छी ख़ासी साख और प्रतिष्ठा हासिल की। यहाँ हम उत्तर-प्रदेश की चार ऐसी ही शख्सियतों से रूबरु हैं जिन्होंने अपने हुनर से ऊँचा मक़ाम हासिल किया।

उमराव जान अदा:

शुजाउद्दौला (1753-1775) लख़नऊ के तीसरे नवाब थे। उन्होंने शुरुआत में अपनी रिहाइश के लिए फैज़ाबाद की जगह लख़नऊ को चुना। वह यदाकदा ही फैज़ाबाद का रुख़ करते जो उस वक़्त अवध की राजधानी थी। उनका ज़्यादातर समय लड़ाइयों में बीता।

बक्सर के युद्ध की चर्चा आम है। यह अलग बात है कि लड़ाई के नौ महीने बाद उन्होंने अंग्रेजों से सुलह कर ली और सुलह की शर्त में प्रदेश की आमदनी से पाँच आने अंग्रेजों को देना तय किया। सुलह के बाद उन्होंने वापस फैज़ाबाद लौटना तय किया और लख़नऊ से लगभग मुँह फेर लिया।

फैज़ाबाद में नवाब के एक बार फिर बस जाने से वहाँ का माहौल रंगा-रंग हो गया। उन्होंने शहर की ख़ूबसूरती पर ध्यान दिया, फौज़ की आमद बढ़ाई और कुछ वक़्त के लिए फैज़ाबाद रौनक और दबदबे का शहर बन गया। रईसों की शानो-शौकत बढ़ी और साथ ही उनके शौक बढ़े। शुजाउद्दौला ख़ुद नाचने गाने से लगाव रखते थे। यही वजह थी कि उनके ज़माने में नाचने-गाने वाली वेश्याओं ने बड़ी संख्या में फैज़ाबाद का रुख़ किया। नवाब के इनाम और प्रोत्साहन से उनकी सुख-समृद्धि, आमदनी बढ़ी।
अगले नवाब आसफ़ुद्दौला (1775-1797) के लख़नऊ बस जाने पर यह शान-ओ-शौकत और रुआब अपने असबाब के साथ लख़नऊ चला आया। आसिफ़ उद्दौला ख़ासे शौकीन मिज़ाज थे। उनके समय में लख़नऊ के दरबार में ऐसी शान-ओ-शौकत पैदा हुई जो हिंदुस्तान के किसी दरबार में न थी। कुछ ही वक़्त में लख़नऊ निराले ठाठ-बाठ का शहर बना जो जिंदगी के जश्न को धूमधाम से मनाने के लिए जाना गया।

इस धूमधाम का असल रंग जमा नृत्य संगीत की महफिलों में। नाचने की कला के उस्ताद तो पुरुष ही रहे लेकिन उसको प्रचार- प्रसार और विस्तार वेश्याओं के जरिये मिला। शरर साहब फरमाते हैं कि जैसी वेश्याएँ लख़नऊ में पैदा हुईं शायद किसी शहर में न हुई होंगी। वेश्याओं ने अपनी अदायगी के लिए नृत्य की कथक शैली को अपनाया जो कोठे पर मुज़रा कहलाई। इसी के साथ लख़नऊ में मुज़रे और कोठे का आविर्भाव हुआ और मुज़रे-वालियाँ तवायफ़ कहलाईं।

यूँ तो लख़नऊ की तमाम तवायफों का ज़िक्र मिलता है। लेकिन सबसे अधिक शोहरत अगर किसी को मिली तो वह हैं- ‘उमराव जान अदा’। उनके ऊपर इसी नाम से एक उपन्यास भी लिखा गया, जिसके लेखक मिर्ज़ा हदी रुस्वा हैं। मिर्ज़ा का समय 1857-1931 के बीच ठहरता है। वह लख़नऊ के बाशिंदे थे। तमाम नौकरियों से गुज़रते हुए कुछ वक्त लख़नऊ क्रिश्चियन कालेज में अरबी-फ़ारसी के व्याख्याता भी रहे। उनका यह उपन्यास उमराव जान का ज़िंदगीनामा पेश करता है।

मिर्ज़ा का दावा है कि उमराव उनकी समकालीन थीं और ‘अदा’ तख़ल्लुस से शायरी भी लिखती थीं। उपन्यास को पढ़कर ऐसा लगता है कि जिस जज़्बे और अदा से उमराव शायरी करती रही होंगी उतनी ही शिद्दत से मिर्जा ने उन्हें कागज़ पर उतार दिया है। इसी उपन्यास पर मुज्जफर अली ने एक नायाब फ़िल्म बनाई। मिर्ज़ा हादी रुस्वा और मुजफ्फर अली ने अपने-अपने हुनर से उमराव जान को इस कदर जिंदा कर दिया कि लख़नऊ शहर की तवायफ़ संस्कृति के बारे में सोचते हुए जेहन में पहला नाम उमराव का ही उभरता है।

हालाँकि तारीख़ में उन्हें तलाशते हुए कोई ख़ास मालूमात नहीं होती। कुछ कड़िया हैं जो उमराव को हकीकत में ढालती हैं। उपन्यास में दो डकैतों– फज़ल अली और फैज़ अली का जिक्र है, जिन्हें आपस में भाई बताया गया है। इनमें से फज़ल का जिक्र उस समय के ब्रिटिश रिकार्ड में है। वह 1856 में मारा गया। उसे गोंडा का रहने वाला बताया गया है। 1857 की गदर में गोंडा की भूमिका का जिक्र इतिहास में दर्ज़ है। 1858 की उथल पुथल के बाद उमराव जान के बहराइच जाने और फैज़ अली के संपर्क में होने का किस्सा मिर्ज़ा हादी रुस्वा भी बयान करते हैं।

दूसरी कड़ी कानपुर की तवायफ़ अजीज़न बाई की है। ब्रिटिश काल के दस्तावेजों में षडयंत्र के अपराध में उन्हें फाँसी पर लटकाने का ज़िक्र है। वह उमराव जान की शागिर्द कही गई हैं। उनकी क़ब्र कानपुर में मौजूद है। ये जानकारियाँ तफ्सील से अमरेश मिश्रा ने अपनी पुस्तक में दर्ज़ की हैं। ज्यादातर उमराव जान की क़ब्र न मिलने की चर्चा विद्वानों में  होती रही  है।
क़ब्र तो नहीं सुकृता पॉल ने उमराव पर अपने निबंध में एक मस्ज़िद का ज़िक्र जरूर किया है जो घाघरा नदी के किनारे है जिसे वह उमराव जान का बनवाया हुआ मानती हैं। फातमान, बनारस में एक क़ब्र है जिसे उमराव जान की कहा गया है।

उमराव किस्सा थीं या हक़ीक़ी कहना मुश्किल है। नवाबी लख़नऊ में तवायफ़ संस्कृति रही है, इससे किसी को गुरेज़ नहीं है। इस बात की तस्दीक तमाम दस्तावेजों से होती है। दस्तावेजों के साथ-साथ उस समय उतारी गई  तवायफ़ों की तस्वीरों से हम उन्हें और क़रीब से महसूस कर पाते हैं। उनकी जिंदगी की जंग और आँसुओं का रंग उमराव जान के किस्से से बहुत जुदा न रहा होगा।

गौहर जान

गौहर जान:

कजरी का मौसम है। शुरुआती गायी गई कजरियों की तलाश में गौहर जान से मुलाकात हो गई। गौहर जान का बचपन का नाम एंजेलीना योवार्ड था। उनकी पहचान कलकत्ता की एक भारतीय गायिका और नर्तकी की है। इतिहास में उनकी ख्याति 76 आरपीएम रिकॉर्ड पर संगीत रिकॉर्ड करने वाली भारत की प्रारंभिक कलाकार के रूप में मिलती है जिसे ग्रामोफ़ोन रिकॉर्ड पर ग्रामोफोन कंपनी द्वारा जारी किया गया।

हिंदुस्तानी क्लासिकल म्यूजिक को लोकप्रिय बनाने वालों में भी गौहर जान की गिनती होती है। उनके गाये ठुमरी, दादरा , कजरी और तराना के रिकार्ड मौजूद हैं। उनकी गाई ठुमरी ‘मोरा नाहक लाये गवन’ लोकप्रिय है।

जून 26,1873 ईसवी में जन्मी गौहर जान सन 1881-83 ईसवी के बीच शहर बनारस में रहीं। उनकी माँ मलिका जान कथक की नृत्यांगना थीं। सन 1883 ईसवी में मलिका जान ने कलकत्ता में रिहाइश का इरादा किया। वहाँ वह अवध के निर्वासित नवाब वाजिद अली शाह के दरबार से जुड़ गई। वाजिद अली शाह उन दिनों मटियाबुर्ज में रह रहे थे।  कलकत्ता में ही गौहर जान की शुरुआती शिक्षा-दीक्षा हुई। उन्होंने बृंदादीन महाराज से कथक सीखा और चरनदास जी से गायिकी का हुनर हासिल किया।

सन 1910 ईसवी में किंग जार्ज पंचम के ताजपोशी के जलसे में गौहर जान के दिल्ली दरबार  शिरकत करने के उल्लेख मिलते हैं। जलसे में उन्होंने इलाहाबाद की जानकी बाई के साथ मिलकर ‘ये है ताजपोशी का जलसा मुबारक़ हो, मुबारक़ हो’ युगल गीत गाया।

इलाहाबाद से जुड़ा एक रोचक किस्सा है। गौहर जानकी बाई के साथ ठहरी थीं। रुखसती के वक़्त  उन्होंने अपनी मेज़बान से कहा कि, “मेरा दिल ख़ान बहादुर सय्यद अकबर इलाहाबादी से मिलने को बहुत चाहता है।”

मेजबान जानकी-बाई ने कहा कि, “आज मैं वक़्त मुक़र्रर कर लूंगी, कल चलेंगे।”
चुनांचे अगले दिन दोनों अकबर इलाहाबादी के यहाँ जा पहुँचीं। जानकी-बाई ने तआ’रुफ़ कराया और कहा, ‘ये कलकत्ता की निहायत मशहूर-ओ-मा’रूफ़ गायिका गौहर जान हैं। आपसे मिलने का बेहद इश्तियाक़ था, लिहाज़ा इनको आपसे मिलाने लायी हूँ ‘।

अकबर इलाहाबादी ने जवाब दिया, “ज़ह-ए-नसीब, वर्ना मैं न नबी हूँ न इमाम, न ग़ौस, न क़ुतुब और न कोई वली जो क़ाबिल-ए-ज़यारत ख़्याल किया जाऊं। पहले जज था अब रिटायर हो कर सिर्फ अकबर रह गया हूँ। हैरान हूँ कि आपकी ख़िदमत में क्या तोहफ़ा पेश करूँ। ख़ैर एक शे’र बतौर यादगार लिखे देता हूँ।”
ये कह कर मुंदरजा ज़ैल शे’र एक काग़ज़ पर लिखा और गौहर जान के हवाले किया।

“ख़ुशनसीब आज भला कौन है गौहर के सिवा
सब कुछ अल्लाह ने दे रखा है शौहर के सिवा”

गौहर जान ने भी तुर्की ब तुर्की  फ़ौरन जवाब में एक शे’र कह डाला । शे’र कुछ यूँ था-

“यूँ तो गौहर को मयस्सर हैं हज़ारों शौहर
पसंद उसको नहीं कोई भी ‘अकबर’ के सिवा”

‘छप्पन छुरी’- जानकी बाई:

‘सइयां निकस गए मैं न लड़ी थी, न जाने कौन सी खिड़की खुली थी’ कबीरदास का रचा भजन है। कबीर रहस्यवाद के पुरोधा हैं। मिट्टी के चोले से आत्मा को इस अंदाज में विदा देते हैं। जानकी बाई अपनी आवाज में जब इसे गाती थीं तो दरबारी महफ़िल ठुमक उठती थी और यह ठुमरी का अंदाज ले लेता था। उनकी आवाज बुलंद थी, मक़ाम भी उन्होंने बुलंद ही पाया। गायकी के ख़ास अंदाज से उनका नाम हिंदुस्तान की शुरुआती रिकार्ड की गई आवाजों की फेहरिस्त में शामिल हुआ।

जानकी बाई की पैदाइश बनारस (1880 ईसवी) की थी। पिता शिवबालक राम अखाड़े के पहलवान थे तो माँ मनकी संगीत की समझ रखने वाली रुचि सम्पन्न महिला। चंद रोज के ख़ुशनुमा बचपन के बाद  उनके पिता ने माँ-बेटी से मुँह मोड़ लिया। मज़बूरन मनकी देवी ने अपना बनारस का घर बेच इलाहाबाद बसने का फैसला किया। उस वक़्त मदद देने के लिए जो हाथ बढ़ा वह भी स्वार्थ की चाशनी में डूबा हुआ था। मदद का स्वांग करने वाली स्त्री माँ-बेटी को एक कोठे के सुपुर्द कर चलती बनी। यहीं से जानकी बाई का शोहरत हासिल करने का सिलसिला शुरू हुआ।

संगीत की शिक्षा उन्होंने लखनऊ के हस्सू खान जी से हासिल की। गुरु की निगहबानी में उन्होंने अपने सुर को इस कदर साधा कि उनकी गिनती अपने समय की नामचीन गायिकाओं में होने लगी। उनकी शोहरत का अंदाजा इस बात से लगता है कि जार्ज पंचम की ताजपोशी (1910 ईसवी) के वक़्त उन्हें गौहर जान के साथ युगल गीत प्रस्तुत करने के लिए चुना गया। उनके युगल गान पर खुश होकर जार्ज पंचम के द्वारा सौ गिन्नियां भेंट करने का जिक्र दस्तावेजों में है।
जानकी बाई महफ़िलों में गाती जरूर थीं लेकिन ज्यादातर पर्दे से गाती थीं।

एक दफे रीवा के महाराजा ने उनके दीदार की इच्छा जाहिर की तो उन्होंने सुर, साज और सीरत के हवाले से अपनी सूरत को बेपर्दा करने से सलीके से इनकार कर दिया। उनकी पर्देदारी से जुड़े कुछ किस्से मिलते हैं। कहते हैं कि किसी नाकामयाब सिरफिरे आशिक़ ने जुनून में उनके चेहरे को छप्पन दफ़े छुरी से गोद दिया था। इसी वजह से छप्पन-छुरी विशेषण उनके नाम से जुड़ गया। इस वाकये के समय उनकी उम्र बारह बरस बताई जाती है। आशिक का नाम रघुनंदन मिलता है  जो पुलिस महकमें का मुलाजिम था। कुछ जगहों पर ये किस्सा उनकी सौतेली माँ के हवाले से दर्ज है। तवायफ के पेशे के साथ जुड़े खूबसूरती के स्टीरियोटाइप ने उन्हें मजबूर किया कि वह अपने हुनर और दिलकश आवाज को पर्दे से शाया करें।

संगीत की तालीम के साथ-साथ जानकी बाई ने अंग्रेजी,संस्कृत और फ़ारसी की शिक्षा भी हासिल की थी। खतो-किताबत कर लेती थीं। उनका एक दीवान (दीवान-ए-जानकी) भी मिलता है। खतो-किताबत की बात निकली है तो एक वाकया दर्ज करते चलें। सन 1911 का बरस इलाहाबाद के इतिहास में एक घटनापूर्ण बरस था।  जनवरी से शहर महाकुम्भ की रौनक में डूबा था। पूरा हिंदुस्तान मानो इलाहाबाद में इकठ्ठा हुआ जाता था। फरवरी में शहर एक दूसरे जलसे की राह देख रहा था। जलसा भी क्या इतिहास में दर्ज होने वाली तारीख थी। अंग्रेजी हुकूमत की तरफ से यूनाइटेड प्रोविंस में एक औद्योगिक मेले का आयोजन किया गया था। इसी के तहत 18 फरवरी,1911 को  हेनरी पिकेट दो सीटर बाई-प्लेन उड़ाने वाले थे। यह एक प्रतीकात्मक उड़ान थी जो दुनिया की पहली ऑफिशियल एयर मेल (First Aerial Post) लेकर जाने वाली थी।  जाहिरन सरकार की तरफ से इसका खूब प्रचार हुआ था। तमाम दूसरे लोगों की तरह जानकी बाई ने भी इस ऐतिहासिक मौके पर तीन खत लिख छोड़े थे।
जलालत और अकीदत के बीच जिंदगी गुजारते हुए  जानकी बाई  सन 1934 में इलाहाबाद के काला डंडा कब्रिस्तान में सुपुर्दे ख़ाक हुईं। आज भी इलाहाबाद के आदर्श नगर इलाके में जीर्ण-शीर्ण पड़ती उनकी कब्र देखी जा सकती है। छप्पन छुरी का तमगा यहाँ भी उनके साथ है। लिखा मिलता है: ‘छप्पन छुरी की मजार’।

रसूलन बाई

लागत करेजवा में चोट- रसूलन बाई:

इतिहास की नज़र बनारस को एक खूबसूरत शहर के रूप में देखती है। इतिहास का विद्यार्थी इस शहर से खासा लगाव रखता है। वजह ये कि जब हम पहले पहल इतिहास के हर्फ़ों को संजीदगी से  थामते हैं तो बनारस शहर की बसावट में निरंतरता हमें चमत्कृत करती है। 600 ईसा पूर्व से लगातार आबाद रहना बनारस शहर को  खास बनाता है। इस शहर की गलियों में जर्रे-जर्रे से आप इतिहास से  रूबरू होते चलते हैं। एक दफ़े यूँ ही बनारस की गलियों को टोहते हुए एक ठुमरी की याद ताजा हो गई जिसे गुनगुनाते हुए हम रसूलन बाई तक जा पहुँचे।

ठुमरी के बोल हैं:

‘फुलगेंदवा न मारो लागत करेजवा में चोट’
अजी फुल गेन्दवा न मारो, न मारो
लगत करेजवा में चोट
दूँगी मैं दुहाई
काहे चतुर बनत
ठिठोरी करत हरजाई
फूल गेंदवा न मारो..
हे दहका हुआ ये अंगारा, अंगारा
दहका हुआ ये अंगारा
जो गेन्दवा कहलाये है
अजी तन पर जहाँ गिरे पापी
वहीं दाग़ पड़ जाये है
अंग-अंग मोरा पीर करे
और करके कहे
फुल गेन्दवा न मारो..

इतिहास की ही तरह साजिन्दों की बात चले या फिर ठुमरी-कजरी का जिक्र हो बनारस एक ख़ास मक़ाम रखता है। रसूलन बाई का ताल्लुक भी बनारस से है। मिर्जापुर में जन्मी (1902) रसूलन बाई को मान-सम्मान रसूख बनारस ने दिया। उनकी पहचान बनारस घराने की पूर्वी अंग की गायिकाओं में है। फुलगेंदवा उनकी चर्चित ठुमरी है। ख़ूब सुनी और गाई जाती है। हिंदी फिल्मों (दूज का चाँद,1964) में भी शामिल हुई। कहते है कान पर हाथ रख तान खींचने की शुरआत रसूलन बाई ने ही की। आज भी ये अदा शास्त्रीय गायन का अभिन्न हिस्सा है।

रसूलन बाई के हिस्से में कुछ ही रौशन दिन आये। जिंदगी का एक बड़ा हिस्सा उन्होंने उदासी, मायूसी और मुफलिसी में गुजरा। सन 1947 में कोठे सरकारी निर्देश पर प्रतिबंधित हो गए। इसका  खामियाजा तवायफों को उठाना पड़ा। सामाजिक दबाव तो उन पर हमेशा से था। इस सरकारी कदम से आर्थिक समस्याएं भी उठ खड़ी हुई।

सन 1948 से आल इंडिया रेडियो ने  गाने बजाने वालों की रिकॉर्डिंग सख्त कर दी। स्त्रियों के लिए विवाहिता का प्रमाणपत्र देना अनिवार्य कर दिया गया। इन सब तब्दीलियों के चलतन रसूलन बाई ने मुजरा करना और दरबारी गायन बंद कर दिया। बनारसी साड़ी के व्यापारी सुलेमान से ब्याह कर गृहस्थी बसा ली। कुछ वक्त बाद उनके पति बेटे के साथ पाकिस्तान जा बसे और रसूलन बाई अहमदाबाद चली गईं। सन 1969 में गुजरात में हिन्दू मुस्लिम दंगे के दौरान फैली आगजनी में रसूलन बाई का घर स्वाहा हो गया। सन 1957 में संगीत नाटक अकादमी से नवाजी गयी ठुमरी की इस रसूखदार गायिका की मृत्यु 72 वर्ष (1979) की वय में हुई।

ये तस्वीर लखनऊ की किसी तवायफ़ की है। इसे दरोगा अली अब्बास ने 1870-74 के बीच किसी समय उतारा था।

बीसवीं शताब्दी की दरबारी महफ़िलों की रौनक रही तवायफ़ों की शास्त्रीय संगीत को लोकप्रिय बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका रही है। उनसे जुड़े किस्से संगीत की परंपरा से ही निसृत हैं जो पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तान्तरित हुए। कुछ किस्से लिखे मिलते है जो तवायफ़ों की खुद की कलम से हैं, कुछ मौखिक परंपरा से आये हैं। इनमें से कुछ आवाज बनकर महफूज़ हो गईं बाक़ी ग़र्क़ हुईं। आवाज ही इनकी पहचान है। आवाज जिसमें खनक है, मिठास है जो बारहा उदास है।



लेखिका: प्रोफेसर नीलिमा पाण्डेय
जय नारायण स्नातकोत्तर कालेज,
लखनऊ विश्विद्यालय, उत्तर प्रदेश