हिंदुस्तान कभी योद्धाओं का देश था। धनुर्धर, तलवारबाज, भाले फेंकने वाले, हर ओर पाए जाते थे, लेकिन आज हमारे खिलाड़ी विदेशों में ट्रेनिंग कर ये कलाएँ सीख रहे हैं। वास्तव में ये हमारे गलत चयन का प्रमाण है। खेल को सिर्फ खेल नहीं अपितु खेल को एक प्रोफेशन और गंभीर कैरियर की तरह देखिए।
हमारे देश मे प्रतिभा की कमी नहीं है। हर घर मे कोई न कोई क्रिएटिव माइंड है। लेकिन उन्हें उचित मार्गदर्शन नहीं मिलता, प्रेरणा नहीं मिलती, उन्हें तो पता ही नहीं होता कि उनमें भी कुछ खास है। ये वही बात हो गई कि हीरा तो है पर तराशने वाला कोई नहीं। बच्चों की क्षमता पहचान कर उन्हें उचित खेलों में डालें, क्योंकि आज नीरज चोपड़ा जैसा एक मिला है कल सौ हीरे मिलेंगे।
पूरे भारत में आज सिर्फ जश्न, जश्न और जश्न मनाया जा रहा है, क्योंकि नीरज चोपड़ा ने टोक्यो ओलंपिक 2021 में 87.58 मीटर दूर भाला फेंक कर भारत का नाम आज पूरे विश्व में रोशन करने के साथ साथ इतिहास भी बना दिया है। नीरज चोपड़ा भारतीय सेना के जेसीओ है, जो अब किसी परिचय के मोहताज नहीं रहे। टोक्यो ओलंपिक 2020 के जैवलीन थ्रो इवेंट में गोल्ड मेडल जीतकर उन्होंने हर भारतीय की स्वर्ण पदक की अभिलाषा को पूरा कर दिया।
लेकिन क्या आप जानते है, ग्यारह साल की उम्र में इनका वजन 80 किलो था। नीरज 13 साल की उम्र में ही 55 मीटर दूर भाला फेंकने लगे थे, और ये जिस हाथ से भाला फेंकते हैं वह एक बार टूट भी चूका है। फिर भी इंजरी से रिकवर करके पहले कॉमनवेल्थ, एशियाड में गोल्ड जीता और अब मात्र 23 साल की उम्र में ओलंपिक गोल्ड मेडल जीत लाये। यह है इनकी फाइटर, इंस्पायरिंग स्टोरी। हैण्डसम लुक्स, मस्कुलर रिप्ड बॉडी, जोरदार हेयर स्टाइल और चेहरे से झलकती एकाग्रता इनके व्यक्तित्व को आकर्षक बनाती है। हो भी क्यों ना, दुनिया के सबसे बड़े भाला फेंक उवे होन उनके प्रशिक्षक जो हैं। उवे होन ने तो 2018 में ही इसकी भविष्यवाणी कर दी थी कि ओलंपिक में नीरज चोपड़ा सोना लेकर स्वदेश लौटेंगे।
आज जिस प्रकार नीरज चोपड़ा पर पूरा देश गर्व कर रहा है उससे ज्ञात होता है कि आज के दौर में खेलों की सफलता सिर्फ आपका नहीं, बल्कि पूरे देश का नाम रोशन करती है। बाकी नौकरी चाकरी धंधा व्यापार तो चलता ही रहता है, इनके चक्कर में बच्चों की नैसर्गिक प्रतिभा को दबाने का फल है कि आज एक गोल्ड मेडल हमें इतना दुर्लभ लग रहा है।
इसके लिये माता-पिता, घर-परिवार ही नही अपितु स्कूल-कॉलेजों, अध्यापकों, फैकल्टी का भी दायित्व है कि वे प्रतिभागियों की दबी हुई प्रतिभाओं को निखारे, सराहें व सपोर्ट दे। क्योंकि देश में कितने ही प्रतिभावान व्यक्ति है जिन्हें अपने हुनर का पता होता है, जिन्हें अपना लक्ष्य पता होता है, जो अपने लक्ष्य को पाने के लिए मेहनत करते हैं, जो कुछ कर के दिखाने की क्षमता रखते हैं लेकिन उन्हें सही सपोर्ट नही मिल पाता, आधुनिक सुविधाएं नहीं प्राप्त हो पाती।
सर्वप्रथम तो सरकार का बजट ही खेलों के प्रति कम होता है, और जितना भी होता है, उसे बीच के लोग दबा लेते है। प्रतिभागी तक बहुत कम ही राशि पहुँच पाती है। ऐसे में प्रतिभावान कितना ही गुणी क्यों न हो, कितनी ही मेहनत क्यों न कर ले, पर उसे उचित दर्जा प्राप्त नहीं हो सकता।
अब इसका ताजा उदाहरण मेंस और वोमेन्स हॉकी टीम का ही देख लो, जिसे कोई स्पॉन्सर नही कर रहा था। ऐसे में उड़ीसा के सीएम नवीन पटनायक ने एक प्रेरणात्मक कदम उठाया और दोनों टीमों को स्पॉन्सर करके टोक्यो ओलंपिक में भेजा। जहाँ पर दोनों ही टीमों ने बहुत अच्छा प्रदर्शन किया। देश की प्रतिभाओं को इसी तरह के विश्वास और समर्थन की आवश्यकता है।
सोनल ओमर
कानपुर, उत्तर प्रदेश