Tuesday, November 26, 2024
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बॉलीवुड के अनकहे किस्से: वो पहली फिल्म जिसका उद्घाटन सरदार पटेल ने किया

अजय कुमार शर्मा

किशोर साहू जिन्होंने अपना कैरियर एक अभिनेता के रूप में बॉम्बे टॉकीज की फिल्म जीवन प्रभात (1937) से शुरू किया था आगे चलकर प्रख्यात और सफल निर्माता, निर्देशक बने। अच्छे साहित्यकार होने के कारण अपनी फिल्मों की कहानियां, पटकथा और संवाद भी वे स्वयं ही लिखा करते थे। बहूरानी (1940) फिल्म का निर्माण और लेखन तथा कुंआरा बाप (1942) और राजा (1943) का निर्माण, लेखन और निर्देशन कर अपनी धाक जमा चुके थे। वे अपनी अगली फिल्म मौर्यकालीन इतिहास के किसी बड़े पात्र पर बनाना चाहते थे। लेकिन मुश्किल यह थी कि चंद्रगुप्त मौर्य पर फिल्म बन चुकी थी और यदि वह चाणक्य पर फिल्म बनाते तो अपनी कम आयु के कारण चाणक्य की भूमिका नहीं निभा सकते थे। यही समस्या सम्राट अशोक के साथ थी। क्योंकि उनकी सारी उपलब्धियां ढलती अवस्था में प्राप्त की थी। उन्हें तलाश किसी युवा पात्र की थी।

इसी उलझन के दिनों में दिल्ली के एक पत्रकार मंगलानंद गौतम उनके पास आए। वे दिल्ली से हिंदी की एक पत्रिका निकालते थे और समय-समय पर उनसे उसके लिए विज्ञापन लेने आ जाते थे। उन्हीं से एक बार बातचीत में यह बात चली तब उन्होंने सम्राट अशोक के बेटे कुणाल का नाम लिया और कहा कुणाल की भी बड़ी-बड़ी आंखें थी तुम्हारी तरह। कुणाल पक्षी अपनी सुंदर आंखों के लिए प्रसिद्ध होता है और अशोक ने उसी के नाम पर अपने पुत्र का नाम कुणाल रखा था। तब तक किशोर साहू ने कुणाल के बारे में कुछ भी नहीं सुना था। संक्षिप्त में ही गौतम जी ने उन्हें कुणाल के बारे में बताया, जिसके अनुसार सम्राट अशोक ने बुढ़ापे में तिष्यरक्षिता नाम की एक सामंत कन्या पर रीझकर उससे शादी की थी जो बाद में राजकुमार कुणाल के सुंदर रूप और आंखों पर आसक्त हो गई थी लेकिन कुणाल लगातार उसके कलुषित प्रेम का तिरस्कार करता रहा। इस तिरस्कार का बदला लेने के लिए उसने कुणाल को बंदी बनाकर उसकी आंखें निकलवा दी थी। बाद में सम्राट अशोक को जब तिष्यरक्षिता की इस हृदय विदारक करतूत का पता चला तो उसने उसे जिंदा जलवा दिया।

कहानी ने किशोर साहू को प्रभावित किया। उसके बाद उन्होंने मौर्यकालीन इतिहास का अध्ययन शुरू किया। अंत में बौद्ध और जैन धर्म के ग्रंथों में उन्हें कुणाल के बारे में काफी विवरण मिल गया। फिल्म की पटकथा तैयार कर उन्होंने उस का नाम रखा “वीर कुणाल।” अब पात्रों के चयन की प्रक्रिया शुरू हुई। तिष्यरक्षिता के लिए उन्हें उस समय की सबसे सुंदर अभिनेत्री का चुनाव करना था। उस समय शोभना समर्थ ही इस पैमाने पर खरा उतरती थीं। लेकिन भरत मिलाप और रामराज्य की सफलता से बनी सीता की पवित्र छवि के विपरीत यह पात्र तो खलनायिका का था। धड़कते दिल से किशोर साहू ने शोभना समर्थ से संपर्क किया। उन दिनों वे उनके साथ इंसान फिल्म में नायिका का रोल कर रही थीं। उनका पहली शंका यही थी कि लोग उन्हें खलनायिका के रूप में स्वीकार करेंगे या नहीं…इस पर उन्होंने समझाया कि इस फिल्म में उन्हें अपनी सुंदरता के साथ ही अपने अभिनय क्षमता को भी दिखाने का अवसर मिलेगा। आखिर शोभना इसके लिए तैयार हो गईं। अगली बात पैसे की थी। तब पता चला कि शांता आप्टे ने हाल ही में उनसे ज्यादा पैसे लिए हैं। साहू जी ने उससे एक हजार ज्यादा देने का वचन देकर उन्हें साइन कर लिया। सम्राट अशोक के लिए उन्होंने चंद्रमोहन से बात की जोकि अपनी बिल्लौरी आंखों और विलक्षण आवाज से बहुत लोकप्रिय थे। लेकिन चंद्रमोहन का अहंकार उन दिनों सातवें आसमान पर था। किशोर साहू ने फोन पर जब उन्हें अपने दफ़्तर आकर बात करने को कहा तो उन्होंने फोन पर ही जवाब दिया,”सुनिए साहू साहब, मैं पिक्चर का 40,000 लेता हूं अगर आपको मंजूर हो तो कल मेरे घर एडवांस लेकर आ जाइए, कहानी भी वही सुन लूंगा।” उनकी इस अकड़ का किशोर को बहुत बुरा लगा और उन्होंने उन्हें जवाब दिया कि इस रोल के लिए उनका बजट 20,000 है। इससे ज्यादा नहीं। इस पर चंद्रमोहन का जवाब था,” अगर आप चंद्रमोहन को चाहते हैं तो आपको अपना बजट बदलना होगा।” तब किशोर साहू का जवाब था,” किशोर साहू अपना बजट नहीं बदल सकता चंद्रमोहन को बदल सकता है।” और बात समाप्त हो गई। फिर इस भूमिका के लिए उन्होंने मन मार कर मुबारक को चुना। रानी कुरुवकी की भूमिका के लिए दुर्गा खोटे को चुना गया। अन्य पात्रों के चुनाव के बाद आखिरकार मोहन स्टूडियो में वीर कुणाल का मुहूर्त करके शूटिंग शुरू कर दी गई।

इस फिल्म के लिए उन्होंने निर्माता, लेखक, अभिनेता और निर्देशक की चौमुखी जिम्मेदारी उनके ऊपर ली थी। उन्होंने आज से 2000 वर्ष पहले के मौर्ययुग की वास्तुकला, वेशभूषा, वातावरण, व्यवहार और इस सबके साथ ही उस समय की संस्कृतनिष्ठ शुद्ध हिंदी में निरंतर संवाद बोलने के लिए बहुत मेहनत की। आखिरकार नौ-दस महीने तक निरंतर चली शूटिंग के बाद फिल्म तैयार हो गई। किशोर साहू की इच्छा थी कि वीर कुणाल का उद्घाटन किसी नामी नेता द्वारा हो और तब उनका ध्यान उस समय के सबसे सशक्त नेता सरदार वल्लभभाई पटेल पर गया। उस समय तक राजनीतिक लोग फिल्मों से दूर ही रहते थे। इस चुनौती को तोड़ने के लिए किशोर साहू ने सरदार वल्लभभाई पटेल से मिलने का निर्णय लिया और पुरुषोत्तम दास टंडन की सहायता से वह उनसे मिलने गए। मिलते ही उन्होंने उस समय की कांग्रेस सरकार पर तोहमत लगाते हुए कहा कि आप सब स्वदेशी वस्त्र, स्वदेशी वस्तुओं के इस्तेमाल की बात करते हैं लेकिन स्वदेशी फिल्मों के बारे में कुछ भी नहीं कहते हैं और तो और उन पर कई तरह की रुकावटें लगाते हैं जबकि वह मनोरंजन कर के रूप में अच्छा-खासा पैसा सरकार को देती हैं।

सरदार पटेल ने अस्वस्थ होने के बावजूद गंभीरता से उनकी बातें सुनी और उनसे कहा कि अच्छा हुआ आपने फिल्म उद्योग की समस्याओं से मुझे अवगत कराया और मैं तुम्हारी बात से सहमत हूं कि सरकार को इस बारे में गंभीरता से सोचना चाहिए। मैं तुम्हारी इस फिल्म का उद्घाटन करने आऊंगा। तब 01 दिसंबर को 4:00 बजे नावेल्टी सिनेमा में फिल्म के उद्घाटन का कार्यक्रम तय हुआ। किशोर साहू ने उनसे कहा कि वह उस दिन फिल्म इंडस्ट्री के सारे नामी और प्रतिष्ठित लोगों को वहां बुलाएंगे और फिर फिल्म उद्योग की समस्याओं को आपके सामने रखेंगे और आप अपना और कांग्रेस का पक्ष रख सकते हैं। सरदार पटेल ने इसके लिए सहमति दे दी। क्योंकि 01 दिसंबर को उन्हें कोलकाता जाना था तब वह इस बात पर सहमत हुए कि मैं उद्घाटन करके ही वहां से चला जाऊंगा। लेकिन किशोर ने कहा कि अगर आप उद्घाटन करके चले जाएंगे तो जनता फिर वही समझेगी कि आपकी या सरकार की फिल्मों में दिलचस्पी नहीं है। इस पर बात इंटरवल तक फिल्म देखने पर बनी और वह मान गए।

चलते-चलते 1 दिसंबर 1945 के दिन भारतीय फ़िल्म उद्योग इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में लिखे जाने वाला दिन बन गया। कांग्रेस और सिनेमा के चलते लोगों का अपार कौतूहल तो था ही जिस कारण थिएटर तो खचाखच भर ही गया, थिएटर के बाहर सड़क पर हजारों लोगों की भीड़ जमा हो गई। सरदार वल्लभभाई पटेल ने वीर कुणाल फिल्म का उद्घाटन तो किया ही उन्होंने वहां एक लंबा-चौड़ा भाषण भी दिया, जिसमें उन्होंने विदेशी फिल्म कंपनियों पर रोक लगाकर भारतीय फिल्म कंपनियों को आगे बढ़ाने का आश्वासन दिया। इसका फिल्म उद्योग में बहुत स्वागत हुआ। फिल्म तो बहुत ज्यादा सफल नहीं रही लेकिन सरदार पटेल की फिल्म उद्योग में इस पहली उपस्थिति से किशोर साहू का नाम जरूर चमक गया और फिल्म पत्रकारों ने उन्हें आचार्य किशोर साहू कहना शुरू कर दिया।

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