जबलपुर में नरवाई और पैरा जलाना हुआ प्रतिबंधित, कलेक्टर ने जारी किए आदेश

जबलपुर कलेक्टर कर्मवीर शर्मा ने जबलपुर जिले की सीमा में गेहूँ एवं अन्य फसलों के डंठलों (नरवाई) में आग लगाकर जलाना दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 144 के तहत प्रतिबंधित कर दिया है।

कलेक्टर कर्मवीर शर्मा द्वारा मंगलवार को जारी यह आदेश तत्काल प्रभावशील हो गया है। आदेश का उल्लंघन भादवि की धारा 188 के अंतर्गत दण्डनीय होगा।

कलेक्टर ने आदेश में कहा है कि नरवाई एवं धान के पैरा में आग लगाना, कृषि के लिये नुकसानदायक होने के साथ ही पर्यावरण की दृष्टि से भी हानिकारक है। इसके कारण विगत वर्षों में गंभीर स्वरूप की अग्नि दुर्घटनाएं घटित हुई हैं। साथ ही कानून व्यवस्था के लिये विपरीत परिस्थितियां निर्मित होती हैं।

उन्होंने कहा कि नरवाई एवं धान का पैरा जलाने से खेत की आग के अनियंत्रित होने पर जन, धन, संपत्ति, प्राकृतिक वनस्पति एवं जीव-जंतु आदि नष्ट हो जाते हैं, जिससे व्यापक नुकसान होता है। खेत की मिट्‌टी में प्राकृतिक रूप से पाये जाने वाले लाभकारी सूक्ष्म जीवाणु इससे नष्ट होते हैं।

उन्होंने बताया कि इससे खेत की उर्वरा शक्ति शनै: शनै: घटती है और उत्पादन प्रभावित हो रहा है। खेत में पड़ा कचरा भूसा डंठल सड़ने के बाद भूमि को प्राकृतिक रूप से उपजाऊ बनाते हैं। जिन्हें जलाकर नष्ट करना ऊर्जा को नष्ट करना है। आग लगाने से हानिकारक गैसों का उत्सर्जन होता है, जिससे पर्यावरण पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा हैं।

दरअसल पर जिले में गेहूं एवं धान की फसल कटाई अधिकांशत: कम्बाईन्ड हार्वेस्टर द्वारा की जाती है। कटाई उपरांत बचे हुये गेहूं के डंठलों (नरवाई) से भूसा न बनाकर जला देते हैं। इसी तरह धान के पैरा को भी आग लगा देते है। धान का पैरा एवं भूसे की आवश्यकता पशु आहार के साथ ही अन्य वैकल्पिक रूप में की जा सकती है।

एकत्रित किया गया भूसा, ईंट-भट्‌टा एवं अन्य उद्योगों में उपयोग किया जाता है। भूसे एवं धान के पैरा की मांग प्रदेश के अन्य जिलों के साथ अनेक प्रदेशों में भी होती है। एकत्रित भूसा 4-5 रुपये प्रति किलोग्राम की दर पर विक्रय किया जा सकता है। इसी तरह धान का पैरा भी बहु उपयोगी है।

पर्याप्त मात्रा में भूसा और पैरा उपलब्ध न होने के कारण पशु अन्य हानिकारक पदार्थ जैसे पॉलिथीन आदि खाते हैं। जिससे वे बीमार हो जाते हैं, अनेक बार उनकी मृत्यु भी हो जाती है, जिससे पशुधन की हानि होती है। नरवाई का भूसा दो-तीन माह बाद दोगुनी दर पर विक्रय होता है तथा कृषकों को यही भूसा बढ़ी हुई दरों पर क्रय करना पड़ता हैं।