बोलो… बोलो ना: सुमन सुरभि

सुमन सुरभि

हाँ,
धीरे-धीरे पूरे होते जा रहे हो तुम
सारे राज दिल के एक-एक करके खोलते जा रहे हो तुम,
बिना किसी लाग लपेट के,
बिना किसी दुराव छिपाव के,
बेहिचक बेधड़क अपने जीवन की किताब के
हर पन्ने बखूबी पढ़ते जा रहे हो तुम….

अच्छा लग रहा है
तुम्हारी गलतियों को भी निर्दोष शब्दों द्वारा तुम्हारे जुबां से सुनना,
ऐसा लग रहा है तुम मेरे नहीं अपनी ही आत्मा के समक्ष अपने क्रियाकलापों को बेपर्दा कर रहे हो,
ना जाने क्यों ये सब सुनना बड़ा ही सुखद लग रहा है,
मानो कोई दिल खोलकर उसमें मुझे बुलाने का आमंत्रण दे रहा है….

तुम्हारी निश्छलता, पारदर्शिता झलक रही है,
ऐसा नहीं है की तुम्हारे द्वारा की गई सारी गलतियां मैं माफ करती जा रही हूँ,
पर ऐसा लग रहा है ये सब सच सच बता कर तुम अपने दिल को साफ करते जा रहे हो,
ताकि वहाँ एक निर्मल सी जगह बन सके जहाँ मैं हंसी खुशी निवास कर सकूँ….

मैं भी तो आतुर हूँ तुममें प्रवेश करने के लिए,
पर उससे पहले मैं भी तो निर्मल होना चाहती हूँ,
ताकि जब तुमसे मिलूं तो सिर्फ हम और तुम हों,
दिल मे बसी पुरानी अच्छाईयों , बुराइयों को तुमसे बता कर
खुद को तन्हा कर देना चाहती हूँ….

क्या तुम सुनोगे ?
जितने धैर्य से मैंने सुना
क्या तुम सब सुनकर भी
ऐसे ही शांत, शीतल बने रहोगे ?
बोलो… बोलो ना?