हर्फ़ गुमसुम: नंदिता तनुजा

नंदिता तनुजा

ना बनती है
ना बिगड़ती है
बातों में फुदकती
एहसासों में चहकती
कभी एकदम ख़ामोश सी है

ये हर्फ़ ऐसे ही
कभी-कभी गुमसुम है

ना जगती है
ना सोती है
धड़कनों में धड़कती
साँसों में महकती
कभी टुकुर-टुकुर देखती है

ये हर्फ़ ऐसे ही
कभी-कभी गुमसुम है

ना जलती है
ना बुझती है
अश्कों में पिघलती
ज़ज्बातो में ठहरती
कभी-कभी बस चुभती है

ये हर्फ़ ऐसे ही
कभी-कभी गुमसुम है

ना रोती है
ना हँसती है
मन के घेरों में तड़पती
मन की सुन, मन समझती
कभी ये आस में ढलती है

ये हर्फ़ ऐसे ही
कभी-कभी गुमसुम है

ना रात है
ना दिन है
बादलों में छुपती
घटाओ में तरसती
सूने आसमां संग ख्यालों में घूमती है

ये हर्फ़ ऐसे ही
कभी-कभी गुमसुम है