कद्दावर नेता के निधन की सूचना ऐसे समय आई जब समूचा देश चुनावी तपिश में तप रहा था। काल कवलित नेता की प्रोफाइल चीजों को अलग नजरिए से देखने की सीख दी गई। शिक्षा-दीक्षा ऐसी थी कि राजनीति से दूर रहते हुए ऐशो-आराम की जिंदगी जी सकते थे। लेकिन लीक से हट कर उन्होंने राजनीति को कर्मक्षेत्र बनाया तो जरूर कुछ सोच कर। चुनाव के चलते राजनीति का हेवी डोज दिमाग में घुस रहा है। चौक-चौराहों से लेकर हर कहीं बस चुनाव की ही चर्चा। वाकई हमारे देश की राजनीति विरोधाभासों से भरी है। बातचीत में राजनीति या चुनाव की चर्चा होते ही लोग मुंह बिचकाते हुए बोल पड़ते हैं… अरे छोड़िए… सब धंधेबाज हैं…। लेकिन छुटभैया नेता से भी सामना होते ही आत्मिक अभिवादन तय। मतदान की बात आई तो जवाबी आश्वासन… वोट तो आपकी पार्टी को ही देंगे… यह भी कोई पूछने वाली बात है। उम्मीदवार तो छोड़िए उनके चंपुओं के बैठकखानों में भी अच्छी-खासी भीड़ नजर आती है। ज्यादातर फरियादी ही दिखाई देते हैं। खादी पहने शख्स हर किसी की बात विनम्रतापूर्वक सुन रहा है…। मानो किसी को भी नाराज नहीं करने की भीष्म प्रतिक्षा कर रखी हो। इस बीच भीतर से प्लेट निकला जिसमें दर्जनों मिठाइयां रखी हुई हैं। नेताजी निर्देश देते हैं कि कोई भी मीठा के साथ पानी पीने से वंचित न रह जाए। थोड़ी देर में काली चाय भी आ जाती है।
नेताजी विनम्रतापूर्वक कहते हैं… भैया इसी से काम चलाइए…। दूध वाली चाय पिलाने की हमारी औकात नहीं है। हम कोई बड़े लोग थोड़े हैं… बस जनता की सेवा का नशा है। अपने देश में सच्चाई है कि मौका चुनाव का हो तो बेचारे उम्मीदवार सबसे सीधी गाय बन जाते हैं। जिसकी इच्छा हो दुह ले…।
नेताजी को ठगे जाने का बखूबी अहसास है। लेकिन हंसते हुए सब कुछ सह रहे हैं। बकौती में कोई सीमा पार कर रहा है लेकिन जनाब शालीनता से सब कुछ बर्दाश्त कर रहे हैं। यह सब देख मैं सोच में पड़ गया कि क्या वाकई राजनीति और इससे जुड़े सारे लोग बहुत ही बुरे हैं। इनमें लेशमात्र भी अच्छाई नहीं है। फिर क्यों लोग इनके सामने सिर झुकाते हैं। मैने कई ऐसे जनप्रतिनिधियों को देखा है जो औसतन 16 से 18 घंटे काम करते हैं। उन्हें देख कर अनायास ही ख्याल आता है ठंडे कमरों में कुर्सियों पर पसरे उन सरकारी बाबुओं व कर्मचारियों का जो महज इस बात से बिफर पड़ते हैं कि किसी ने उनके सामने खड़ा होकर उनके अखबार पढ़ने या मोबाइल पर चैटिंग का मजा किरकिरा कर दिया। जबकि तनख्वाह हजारों में पाते हैं। हर पांच साल में जनता की चौखट पर मत्था टेकने की कोई मजबूरी उनके सामने नहीं है। करोड़ों में बना पुल भले ताश के पत्तों की भरभरा कर गिर जाए लेकिन क्या मजाल कि कायदे का कोई भी काम बगैर मीन -मेख निकाले आगे बढ़ा दे। सरकारी अस्पताल में मरीज बाथरुम में औंधे मुंह गिरा पड़ा है, लेकिन शोर मचने के बावजूद अस्पताल के कर्मचारी अपने में मस्त हैं कि गिरे को उठाना हमारा काम थोड़े हैं। मेरे शहर में संगठित अपराध के गिरोह ने करोड़ों के वारे-न्यारे किए। कालचक्र में गिरोह की कमर टूट गई। कईयों को जेल जाना पड़ा। कई अच्छे-भले लोगों पर बदनामी के कीचड़ उछले। लेकिन काली कमाई की आधी मलाई खाने वाले सरकारी अधिकारी, कर्मचारी और पुलिस का बाल भी बांका नहीं हुआ।
चुनाव या राजनीति से आप निराश हो सकते हैं… राजनेताओं को गालियां भी दे सकते हैं। लेकिन इसकी कुछ अच्छाइयों को नजरअंदाज करना भी गलत होगा। सामान्य वर्ग के कई नेताओं पर खास वर्ग को जरूरत से ज्यादा महत्व देने का आरोप लगता है तो एक मायने में यह सुखद ही है कि वोटों की खातिर ही सही, लेकिन कोई उपेक्षित तबके का ख्याल तो रख रहा है। अल्पसंख्यक समुदाय के एक ऐसे नेता को जानता हूं कि जिसके क्षेत्र में बहुसंख्यक-अल्पसंख्यक हैं। वो खुद भी अल्पसंख्यक समुदाय से हैं। लेकिन रक्षाबंधन के दिन हाथों में राखियां सजा कर वो नेता अपने क्षेत्र के हर हिंंदू के घर जा धमकाता है और शिकायती लहजे में कहता है कि क्या इस भाई की कलाई में राखी नहीं सजेगी। फिर लगातार कई दिनों तक राखियां उसकी कलाई पर बंधी नजर आती है। यह राजनीति और चुनाव का करिश्मा है जो एक अदने से नेता को इतना उदार बनने को मजबूर कर सकता है। लिहाजा हम चुनाव या राजनीति की बुराइयों की जरूर आलोचना करें, लेकिन इसकी अच्छाइयों की ओर ध्यान देना भी जरूरी है। इसके कई सकारात्मक पक्ष भी हैं…।
-तारकेश कुमार ओझा
लेखक पश्चिम बंगाल के खड़गपुर में रहते हैं और वरिष्ठ पत्रकार हैं।
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