स्त्री जानती है
दुनिया में कोई भी कन्धा ऐसा नहीं है
जिस पर माथा रख
मूँद लेगी अपनी बड़ी- बड़ी काजलवाली आँखें
देखेगी देर तक कभी न टूटनेवाला एक सपना
उसे पता है
वह कन्धा
काँप उठेगा उसकी अनगिनत मीठी शिकायतों से
दब जाएगा एक तरफ़ उसके सपनों के भार से
दुनिया भर के खारेपन को धरने वाली उसकी आँखों से
एक बूँद भी टपक पड़े तो
भरभराकर गिरजाएगा जर्जर किसी दीवार की तरह
इसीलिए वह स्त्री खुद ही बना लेती है
एक मजबूत दीवार अपने ही मन के अंदर कहीं
सारे दर्द को जिन्दा चुनवा देती है उसी दीवार में
सपनों को टाँग देती है किसी तस्वीर की भाँति
टिका देती है अपना माथा उसपर निश्चिंत हो
और फिर
खींच लेती है
मुस्कराहट की हल्की-सी लक़ीर अपने होठों पर
इस तरह से तय कर लेती है सफ़र एक पूरी उम्र का ……….!
-जयश्री दोरा
ब्रम्हपुर , ओड़िशा