चेन्नई (हि.स.)। पूरे विश्व में एंटीबायोटिक रेजिस्टेंस की चुनौती जिस तरह से बढ़ रही है उससे एंटीबायोटिक दवाइयों के प्रयोग पर प्रश्नचिन्ह लग रहा है। अस्पतालों में एंटीबायोटिक दवाओं के उपयोग को लेकर डॉक्टर चिंतित हैं। एक अध्ययन में पाया गया है कि 6 फीसदी रोगियों को ही केवल उनकी बीमारी के लिए जिम्मेदार बैक्टीरिया की पुष्टि के बाद एंटीबायोटिक्स दवाएं दी जाती है। जबकि 45 प्रतिशत मामलों में पूरी तरह लक्षणों के आधार पर और 55 फीसदी लोगों को संक्रमण की सांकेतिक जानकारी के आधार पर दी जाती है।
कुल मिलाकर रैपिड मोड टेस्ट ना होने की वजह से एंटीबायोटिक के प्रयोग में डॉक्टर इन समस्याओं से जूझ रहे हैं। इस मामले में भारतीय विज्ञान संस्थान (आईआईएससी) और जवाहरलाल नेहरू सेंटर फॉर एडवांस्ड साइंटिफिक रिसर्च (जेएनसीएएसआर) के शोधकर्ताओं द्वारा विकसित एंटीबायोटिक-प्रतिरोधी पेपर-आधारित प्लेटफॉर्म द्वारा रोग पैदा करने वाले बैक्टीरिया की उपस्थिति का तुरंत पता सकते हैं। दावा किया जा रहा है कि आने वाले दलों में यह मील का पत्थर साबित हो सकता है।
इस अनुसंधान टीम के अनुसार ,’मानव जाति की सबसे बड़ी चुनौतियों में से एक रोग पैदा करने वाले जीवाणुओं का उदय है जो एंटीबायोटिक दवाओं के प्रतिरोधी हैं। उनके उद्भव को एंटीबायोटिक दवाओं के दुरुपयोग और अति प्रयोग से बढ़ावा मिला है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, मुट्ठी भर ऐसे बैक्टीरिया – जिनमें ई. कोली और स्टैफिलोकोकस ऑरियस शामिल हैं। इससे पूरे विश्व में 10 लाख से अधिक मौत होती है और आने वाले वर्षों में यह संख्या बढ़ने की आशंका है। इसके लिए सटीक जांच तकनीक से उपचार क्षमता को कई गुना बढ़ाया जा सकता है।’
आईआईएससी के प्रोफेसर उदय मैत्रा ने बताया, ‘आमतौर पर डॉक्टर मरीज का निदान करता है और उन्हें दवाएं देता है। इसके बाद मरीज को 2-3 दिनों तक इसे लेने से पहले पता चलता है कि दवा काम नहीं कर रही है और फिर डॉक्टर के पास जाता है। यहां तक कि रक्त या मूत्र परीक्षण से यह पता लगाने में भी समय लगता है कि बैक्टीरिया एंटीबायोटिक-प्रतिरोधी है। हम निदान में लगने वाले समय को कम करना चाहते थे।’
उन्होंने बताया कि विभिन्न माध्यमों से कोई जीवाणु एंटीबायोटिक दवाओं के प्रति प्रतिरोधी बन जाता है। एक अवस्था में जब जीवाणु विकसित होता है तभी दवा को पहचान सकता है और अपनी कोशिका से बाहर निकाल सकता है। दूसरी में अवस्था में जीवाणु β-लैक्टामेज़ नामक एक एंजाइम का उत्पादन करता है, जो β-लैक्टम रिंग को हाइड्रोलाइज करता है जहां पर पेनिसिलिन और कार्बापेनम जैसे सामान्य एंटीबायोटिक दवाओं का एक प्रमुख संरचनात्मक घटक दवा को अप्रभावी बना देता है।
आईआईएससी और जेएनसीएएसआर टीम द्वारा विकसित दृष्टिकोण में टर्बियम कोलेट युक्त एक सुपरमॉलेक्यूलर हाइड्रोजेल मैट्रिक्स के भीतर बाइफिनाइल-4-कार्बोक्जिलिक एसिड (बीसीए) को शामिल करते हैं और जब इस पर यूवी प्रकाश डाला जाता है तो यह हाइड्रोजेल सामान्यतः हरा रंग उत्सर्जित करता है।
आईआईएससी के ऑर्गेनिक केमिस्ट्री विभाग में पीएचडी छात्र और पेपर के मुख्य लेखक अर्नब दत्ता ने बताया, ‘प्रयोगशाला में हमने बीसीए को चक्रीय रिंग से जोड़ कर एक एंजाइम-सब्सट्रेट को संश्लेषित कराया गया जो एंटीबायोटिक का उत्सर्जक है। इस प्रक्रिया में बैक्टीरिया का β-लैक्टामेज़ एंजाइम दवा के प्रभाव को नष्ट करता है। इसी दौरान β-लैक्टामेज़ की उपस्थिति हरा उत्सर्जन कार्य ल्यूमिनसेंस एंटीबायोटिक-प्रतिरोधी बैक्टीरिया की उपस्थित बताता है। इसलिए ल्यूमिनेसेंस की तीव्रता ज्ञात करते है। गैर-प्रतिरोधी बैक्टीरिया के लिए हरे रंग की तीव्रता बेहद कम पाई गई, जिससे प्रतिरोधी बैक्टीरिया को अलग करना आसान हो गया।
वैज्ञानिकों ने बताया कि अगला कदम प्रौद्योगिकी को सस्ता बनाने का तरीका खोजना था। वर्तमान में उपयोग किए जाने वाले डायग्नोस्टिक्स उपकरण अधिक महंगे होते हैं, जिससे परीक्षण की कीमतें बढ़ जाती हैं। टीम ने तमिलनाडु स्थित एड्यूवो डायग्नोस्टिक्स नामक कंपनी के साथ मिलकर एक अनुकूलित, पोर्टेबल और लघु इमेजिंग डिवाइस डिजाइन किया जिसे इल्यूमिनेट फ्लोरोसेंस रीडर नाम दिया गया। माध्यम के रूप में हाइड्रोजेल को कागज की शीट पर डालने से लागत काफी कम हो गई। उपकरण में विभिन्न एलईडी लगे हैं जो आवश्यकतानुसार यूवी विकिरण की भी जांच की गई। जिसके लिए मौजूद एंजाइम को विशेष कैमरे द्वारा कैप्चर किया जाता है और एक एडवांस सॉफ़्टवेयर के माध्यम से उसकी तीव्रता को मापा जाता है जो बैक्टीरिया की सटीक मात्रा को बताता है।