भारतीय वैज्ञानिकों ने सुझाव दिया है कि पराग (पॉलेन) पूर्वानुमान प्रणाली विकसित करने और स्वास्थ्य देखभाल कर्मियों के प्रशिक्षण जैसे बड़े पैमाने पर उपाय और व्यक्तिगत रूप से किए जाने वाले उपायों- जैसे पराग पूर्वानुमान, फेस मास्क, चश्मा और एयर फिल्टर का उपयोग, नियमित रूप से निर्धारित दवाएं लेना, बाहरी जोखिम को सीमित करना और बागवानी से बचना या अधिकतम पराग वाले मौसम के दौरान घास काटने से परहेज करके पराग से संबंधित एलर्जी रोगों की शुरुआत और उनकी तीव्रता को कम करने में मदद मिल सकती है।
उन्होंने बीमारी के बेहतर समाधान के लिए पराग एलर्जी, एलर्जी से बचाव, उसके लक्षण और प्रबंधन के बारे में उचित ज्ञान के प्रसार की आवश्यकता पर प्रकाश डाला है। मौसम में परिवर्तन के साथ ही वसंत अब पूरी तरह से खिल रहा है, पेड़, घास और खरपतवार अन्य समान पौधों को निषेचित करने के लिए पराग के रूप में जाने वाले महीन बायोएरोसोल कणों को छोड़ते हैं। हालांकि, नाक के रास्ते में प्रवेश करने वाले परागकण विभिन्न लक्षणों के साथ कुछ हद तक सामान्य फ्लू और सर्दी के समान पराग एलर्जी का कारण बन सकते हैं। जैसे-जैसे जलवायु परिवर्तनशीलता बढ़ रही है, यह आशंका भी हो जाती है कि शहरी वातावरण पराग से संबंधित श्वसन और त्वचा रोगों के बोझ को महत्वपूर्ण रूप से बढ़ा देगा।
इसे ध्यान में रखते हुए, स्नातकोत्तर चिकित्सा शिक्षा एवं अनुसंधान संस्थान (पोस्ट ग्रेजुएट इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल एजुकेशन एंड रिसर्च– पीजीआईएमईआर), चंडीगढ़ से प्रो. रवींद्र खैवाल, सुश्री अक्षी गोयल, पीएचडी शोध छात्र, और डॉ सुमन मोर, अध्यक्ष, पर्यावरण अध्ययन विभाग ने पराग एलर्जी रोग और उसकी पीड़ा को कम करने के लिए कार्यान्वयन संबंधी कमियों की व्यवस्थित रूप से जांच की। भारत सरकार के विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग (डीएसटी) द्वारा समर्थित उनका अध्ययन, एल्सेवियर की एक अंतरराष्ट्रीय पत्रिका इंटरनेशनल जर्नल ऑफ हाइजीन एंड एनवायर्नमेंटल हेल्थ (आईजेएचईएच) में प्रकाशित हुआ था।
इस अध्ययन का उद्देश्य निम्न और मध्यम आय वाले देशों पर ध्यान केंद्रित कर व्यापक पराग एलर्जी के प्रमुख कारणों को समझना और कार्यान्वयन संबंधी कमियों की पहचान करना है ताकि पराग से संबंधित एलर्जी रोगों की शुरुआत और तीव्रता को कम करने के लिए महत्वपूर्ण अनुकूलन उपायों का सुझाव दिया जा सके।
प्रो. रवींद्र खैवाल ने बताया कि ये “सबमाइक्रोनिक-पराग कण नाक में ऊपरी वायुमार्ग में गहराई तक पहुंचने वाले श्वसन कणों के रूप में कार्य कर सकते हैं, जिससे दमा (अस्थमा), क्रॉनिक ऑब्सट्रक्टिव पल्मोनरी डिजीज (सीओपीडी) और अन्य एलर्जी प्रतिक्रियाएं हो सकती हैं।” उन्होंने कहा कि पराग एलर्जी सांस की एक प्रमुख बीमारी है जो रुग्णता का कारण बनती है और रोगियों के जीवन की गुणवत्ता को प्रभावित करती है। पिछले कुछ दशकों में, पराग एलर्जी की व्यापकता में वृद्धि हुई है। यह दुनिया भर में लगभग 10 प्रतिशत से 30 प्रतिशत वयस्कों और 20 प्रतिशत -25 प्रतिशत बच्चों को प्रभावित करती है और शहरीकरण, वायु प्रदूषण और जलवायु परिवर्तन के कारण बढ़ गई है।
डॉ. सुमन मोर, अध्यक्ष, पर्यावरण अध्ययन विभाग, पंजाब विश्वविद्यालय, चंडीगढ़ ने उनके द्वारा सुझाई गई रणनीतियों के चार स्तरों- व्यक्तिगत स्तर, स्वास्थ्य देखभाल समुदाय और संगठन, स्थानीय सरकारें, राष्ट्रीय/अंतर्राष्ट्रीय सरकार के स्तर, जोखिम को कम करने के लिए पराग एलर्जी से जुड़ी बीमारियों के बारे में प्रकाश डाला।
प्रो. खैवाल ने कहा कि अधिकतम पराग वाले मौसम के दौरान एलर्जी अस्थमा, राइनाइटिस और एक्जिमा के साथ जुड़ी सबसे संवेदनशील उप-आबादी पर ध्यान देने की आवश्यकता है। उन्होंने जोर देकर कहा कि बहु-हितधारक जुड़ाव ही पराग एलर्जी के प्रभाव को कम करने की कुंजी है, जिसमें एरोबायोलॉजिकल अनुसंधान में क्षमता निर्माण, पराग पूर्वानुमान प्रणाली विकसित करने और स्वास्थ्य देखभाल पेशेवरों के प्रशिक्षण के लिए शिक्षा क्षेत्र पर ध्यान केंद्रित करना शामिल है।
सुश्री अक्षी गोयल, डीएसटी-इंस्पायर पीएचडी. पंजाब विश्वविद्यालय, चंडीगढ़ के विद्वान ने कहा कि शोध ने उन्हें बदलती जलवायु में पराग एलर्जी की गंभीरता को समझने का अवसर प्रदान किया है, और इस तरह के अध्ययन युवा वैज्ञानिकों को रोकथाम योग्य स्वास्थ्य जोखिमों को कम करने के लिए एरोबायोलॉजी के क्षेत्र में करियर बनाने के लिए प्रोत्साहित करेंगे।