अजय कुमार शर्मा
भारत सरकार द्वारा पुणे में फिल्म प्रशिक्षण के लिए शुरू किए गए फिल्म एंड टेलीविजन इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया यानी एफटीआईआई की शुरुआत में 6 पाठ्यक्रम रखे गए थे- निर्देशन, फोटोग्राफी, संपादन, ध्वनि, पटकथा लेखन और अभिनय। अभिनय में 20 सीटें थीं और बाकी सभी में दस- दस। एक जनवरी 1974 को एफटीआईआई के निदेशक के रूप में गिरीश कर्नाड ने कार्यभार संभाला। संस्कार फिल्म की सफलता, वंश वृक्ष फिल्म के लिए सर्वश्रेष्ठ निर्देशक का राष्ट्रीय पुरस्कार और ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस में प्रबंधक के पद पर किए गए उल्लेखनीय कार्य इसकी पृष्ठभूमि में थे जिस कारण 35 वर्ष की आयु में उन्हें यह पद सौंपा गया था। इससे पहले वह 1972 में एफटीआईआई के निर्देशन पाठ्यक्रम की चयन समिति के सदस्य भी रहे थे जिसमें केतन मेहता, सईद मिर्ज़ा, कुंदन शाह, विधु विनोद चोपड़ा और गिरीश कासरवल्ली जैसे छात्र चुने गए थे। उन्होंने वहां तीन साल का कार्यकाल मांगा था जिसका प्रतिवर्ष नवीनीकरण किया जाना था। उनकी सैलरी थी 2,700 रुपए। वे संस्थान के तीसरे निदेशक थे। उसके पहले संस्थापक निदेशक जगत मुरारी थे और बाद में कुछ समय के लिए आकाशवाणी के रिटायर अधिकारी दीक्षित इसके निदेशक रहे थे।
गिरीश कर्नाड ने कार्यभार संभालते ही सबसे पहले सबका कार्यालय में ठीक समय यानी 9:30 बजे आना शुरू कराया। कैंटीन से निदेशक के लिए आ रहा फ्री दूध बंद करा दिया और ऑफिस के वाहनों का निजी कामों में इस्तेमाल करने पर एक फीस लगा दी। इस दायरे में उन्होंने खुद और अपनी मां को जो उनके साथ रहती थीं, उनको भी रखा। इतना ही नहीं पुस्तकालय में दबी छिपी रखी वी. जी. दामले की प्रतिमा जो कि प्रभात स्टूडियो के संस्थापकों में से एक थे, उसको साफ-सुथरा करवा कर अपने कार्यालय में लगवाया। एफटीआईआई का निदेशक बनने के बाद उन्होंने जो एक और बड़ा फैसला लिया वह था अभिनय पाठ्यक्रम के लिए हर उम्मीदवार से लिए जाने वाले स्क्रीन टेस्ट को रद्द करना। यह संस्थान के लिए क्रांतिकारी कदम था क्योंकि अब तक संस्थान में अभिनय प्रशिक्षण के लिए चुने जाने वाले चेहरों के पीछे मूल विचार बंबई के फिल्म उद्योग के लिए सुंदर, चॉकलेटी और करिश्माई हीरो को चुनना था। उनके फैसले से अभिनय के प्रोफेसर रोशन तनेजा बहुत परेशान हो गए। उस साल अभिनय पाठ्यक्रम के उम्मीदवारों में एनएसडी से डिप्लोमा प्राप्त एक लंबा, बहुत दुबला और चेचक के धब्बों से भरे चेहरे वाला एक प्रत्याशी था। अपने इंटरव्यू में उसने जो एकल अभिनय प्रस्तुत किया वह कोई असाधारण प्रतिभाशाली अभिनेता ही कर सकता था। लेकिन निर्णय वही हुआ… जूरी ने उसे यह कहते हुए कि वह शानदार अभिनेता तो जरूर है लेकिन उसका हुलिया फिल्म उद्योग में काम करने के लायक नहीं है उसे तुरंत खारिज़ कर दिया केवल गिरीश कर्नाड और अभिनेता जयराज के अलावा। अंत में अपने अधिकार का प्रयोग करते हुए गिरीश कर्नाड ने उसे अभिनय पाठ्यक्रम के लिए चुन लिया। आगे चलकर यह अभिनेता उस पीढ़ी के प्रमुख अभिनेता के रूप में उभर कर सामने आया और कर्नाड के चयन को पूरी तरह सही ठहराया। अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त यह अभिनेता और कोई नही ओमपुरी थे जिन्होंने 20 वर्ष बाद फिल्म फेयर लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड लेते हुए मंच से कहा था, “अगर गिरीश ने पुराने नियम को तोड़ कर मुझे संस्थान में न लिया होता तो आज मैं यहां खड़ा न होता।”
इसी वर्ष अभिनय में चयन को लेकर एक और किस्सा हुआ। नीली आंखों वाले एक खूबसूरत युवक की सिफारिश के लिए बड़े-बड़े फिल्मकारों ने गिरीश कर्नाड को पत्र लिखे थे। प्रोफेसर तनेजा भी उसका प्रवेश चाहते थे लेकिन तब तक 10 पुरुष और 10 महिला कलाकार प्रशिक्षण के लिए चुने जा चुके थे। तब तनेजा साहब ने गिरीश कर्नाड को सुझाव दिया कि अगर हम उसको 11 नंबर पर रखकर प्रतीक्षा सूची में पहले नंबर पर रखते हैं तो जूरी का निर्णय सम्मानजनक लगेगा। कुछ लोगों के मना करने पर भी कर्नाड ने यह मान लिया और सूची जारी कर दी। अचानक एक दिन मीटिंग के दौरान उन्हें पता चला की राज कपूर साहब आए हैं और बाहर इंतजार कर रहे हैं। इंस्टिट्यूट से थोड़ी दूर लोनी में राज कपूर का फॉर्म हाउस था लेकिन आज वह पहली बार संस्थान में आए थे। उनके आगमन से पूरे संस्थान में हलचल मच गई और सभी शिक्षक एवं अन्य कर्मचारी अपने-अपने काम छोड़ कर उनके स्वागत में लगना चाहते थे। लेकिन क्योंकि वह बिना अप्वॉइंटमेंट आए थे इसलिए गिरीश कर्नाड ने मीटिंग खत्म नहीं की और राज कपूर को प्रशासनिक अधिकारी के कमरे में बैठ कर इंतजार करने का संदेश भिजवा दिया।
राज कपूर ने मिलते ही अपना दुखड़ा सुनाया जिसका मतलब था कि उस लड़के को प्रतीक्षा सूची में रखकर उन्होंने गलत किया है। कर्नाड के यह तर्क कि ऐसा न करने पर उन्हें किसी बेहतर अभिनेता की कुर्बानी देनी होती से भी वे संतुष्ट न हुए। राज कपूर का तर्क था कि अगर उस लड़के में जरा भी टैलेंट नहीं था तो आपने उसे रिजेक्ट कर दिया होता, प्रतीक्षा सूची में पहले नंबर पर रखने की क्या ज़रूरत थी? अचानक उन्होंने अपनी आवाज़ को भावुक बनाते हुए कहा कि हमने फिल्म इंडस्ट्री को अपना पूरा जीवन दिया है, क्या हमारी इतनी बात का सम्मान नहीं रखा जा सकता। लगा जैसे अपमान के दर्द से उनकी आवाज थरथरा रही हो। राज कपूर को गाड़ी तक छोड़ते समय गिरीश कर्नाड ने उनसे कहा कि सर जितने भी लोगों ने उसकी सिफारिश की है अगर उनमें से कोई एक भी लिख कर दे दे कि वह अपने प्रोडक्शन में उसको कोई भी काम देगा तो मैं उसको पाठ्यक्रम में दाखिला दे दूंगा। लेकिन राज साहब चुप रहे तब कर्नाड ने कहा,”सर आप संस्थान में पहली बार आए हैं, मैं आपको निराश नहीं करूंगा। उससे कह दीजिए उसे दाखिला दे दिया गया है। धन्यवाद देकर राज कपूर चले गए। मज़ेदार बात यह हुई कि वहां से जाने के बाद राज साहब ने फौरन उस युवक को बुलाकर कहा कि मैंने तुम्हें संस्थान में दाखिला दिला दिया है, अब मेरे पास काम मांगने मत आना। सच में दिलीप धवन नाम के इस कलाकार को किसी ने काम नहीं दिया। एफटीआईआई में निर्देशन का कोर्स कर रहे सहपाठी सईद मिर्जा के टीवी धारावाहिक नुक्कड़ ने ही उनको देशव्यापी पहचान दिलाई।
चलते-चलते
एफटीआईआई के सरकारी वाहनों के निजी इस्तेमाल करने पर शुल्क देने के निर्णय के बाद जब वर्ष के अंत में गिरीश कर्नाड द्वारा वाहनों का इस्तेमाल करने का भरी भरकम बिल उनके पास आया तो वह चौंके। क्योंकि उन्होंने तो केवल जीप का इस्तेमाल किया था जिसका किराया काफ़ी कम था। पता चला कि उनकी मां ने आने-जाने के लिए शानदार लिमोजिन गाड़ी का इस्तेमाल किया था जिसका शुल्क काफ़ी ज्यादा था। पूछने पर उन्होंने साफ-साफ कह दिया कि फिल्म संस्थान के निदेशक की मां होने के नाते मुझे उस घटिया जीप में बैठने में शर्म आती है। जब निदेशक जीप में चल रहा है तो उसकी मां तो लिमोजिन में चल ही सकती है…।