Saturday, December 28, 2024
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बॉलीवुड के अनकहे किस्से: आनंद बक्शी के अनसुने नगमें

अजय कुमार शर्मा

हिंदी सिनेमा के सबसे लोकप्रिय गीतकारों में से एक आनंद बख़्शी ने फिल्मों में 3300 से ज्यादा गाने लिखे। उन्होंने 42 साल लंबे अपने करियर में 96 संगीतकारों और करीब ढाई सौ निर्देशकों के साथ काम किया। फिल्मों में गीत सिचुएशन और कहानी के मुताबिक लिखे जाते हैं। पर फ़िल्म के फाइनल रिलीज़ होने तक फिल्म की लंबाई कम करने या गाने अधिक होने के कारण बहुत सारे गाने रिकॉर्ड होकर भी फिल्मों में इस्तेमाल नहीं हो पाते हैं। आनंद बख़्शी जी के साथ भी ऐसा हुआ। कुछ फिल्में ही अटक गई, कुछ फिल्में पूरी नहीं हो पाई लेकिन उनके गाने लिखे गए और रिकार्ड भी हुए। इन्हीं अनसुने नग्मों को आनंद बख़्शी के पुत्र राकेश आनंद बक्शी ने एक किताब में संकलित किया है, जिसका शीर्षक है “मैं जादू हूं चल जाऊंगा।”

राकेश आनंद बक्शी की इस पुस्तक को पेंगुइन स्वदेश ने हाल ही में प्रकाशित किया है। इसमें आनंद बख़्शी द्वारा समय -समय पर लिखे 69 ऐसे गीत और कविताएं शामिल हैं जिनसे पाठक पहली बार रूबरू होते हैं। इनमें तीन वह कविताएं भी हैं जो उनके गीतकार बनने से पहले प्रकाशित हुईं। बख़्शी साहब की पहली कविता जब वह किशोर थे, रावलपिंडी (अब पाकिस्तान) से निकलने वाले अखबार कौमी में छपी थी। इसकी शुरू की पंक्तियां थीं-

ऐ खुदा, गम तेरी दुनिया के मैं पी सकता नहीं

माँगता हूँ आज कुछ, अब होंठ सी सकता नहीं।

ज़िंदगी इस वास्ते जीने को भी करता है दिल

और मौत इस ख़ातिर, कि मैं और जी सकता नहीं।

उनकी दूसरी कविता 25 मार्च 1950 को सेना की प्रतिष्ठित पत्रिका सैनिक समाचार में छपी जिसका शीर्षक था “गिरेंगी बिजलियां कब तक, जलेंगे आशिया कब तक।” पत्रिका के संपादक से उन्होंने अनुरोध किया था कि उनके नाम के साथ उनका रैंक भी छप जाए ताकि वह अपने साथियों और अफसर के बीच अपनी धाक जमा सके। यह कविता एक ऐसे शख्स के गम और उसकी तकलीफ़ का बयां है जो लगातार बदकिस्मती के थपेड़े सहते-सहते परेशान हो गया है। इस कविता के प्रकाशन से उन्हें भरोसा हुआ की वह अच्छा लिख सकते हैं क्योंकि इसके लिए उन्हें अपने साथियों और अफसरों से काफी तारीफें मिली थीं। इसकी अगली लाइन थी- खिलाफ अहल ए चमन के तू रहेगा आसमान कब तक।

इसमें वह कविता भी संकलित है जब 1956 में वे दूसरी बार मुंबई में बतौर गीतकार अपनी किस्मत आजमाने आए थे। तब उन्होंने यह कविता खुद को प्रेरित करने के लिए लिखी थी। इसकी पंक्तियां थीं-

जो तदबीरों से फिर जाएँ वो तक़दीरें नहीं होतीं

बदल दें जो ना तक़दीरें वो तदबीरें नहीं होतीं

मुहब्बत के महल का तो तसव्वुर भी नहीं आसान

वफ़ा के ताज की आसान तामीरें नहीं होतीं।

संकलन में गीतों के अलावा उनकी बहुत सारी कविताएं और शायरी भी शामिल है जो उन्होंने खाली समय में अपने लिए लिखी थी। वह यह सब अपनी डायरी में लिखा करते थे। बख़्शी साहब ने इसके बारे में अपने पुत्र राकेश को बताते हुए कहा था कि जब मैं दुनिया से चला जाऊंगा तो भी इस डायरी को बहुत संभाल कर रखना। यही नहीं तुम फिल्मकारों को यह कह सकते हो कि अगर उनकी कहानी के मुताबिक कोई कविता नजर आती है तो वह उसका इस्तेमाल अपनी फिल्मों में कर सकते हैं। राकेश आनंद बक्शी ने केवल एक फिल्मकार को इस डायरी से कविता लेने की इजाजत दी और वह थे असीम शक्ति सामंत। उन्होंने अपनी फिल्म ये जो मोहब्बत है (2012) के लिए दो रोमांटिक गाने रिकॉर्ड किए थे जिसका संगीत अनु मलिक ने दिया था।

इसमें आनंद बक्शी द्वारा अपने 69वें जन्मदिन पर अपने बारे में कहा गया वह वक्तव्य भी है जो उन्होंने सुभाष घई द्वारा आयोजित विशेष पार्टी में कहे थे।

प्रस्तावना के तौर पर 21 जुलाई 1998 को लीला होटल में आनंद बक्शी के जन्मदिन पर निर्देशक सुभाष घई के द्वारा आयोजित समारोह में बक्शी साहब के बारे में जावेद अख्तर द्वारा गया दिया गया वक्तव्य शामिल है जिसमें वह कहते हैं – जज्बात का कौन-सा मोड़ है वह एहसास की कौन-सी मंजिल है वह धड़कनों की कौन-सी रुत है वो मोहब्बत का कौन-सा मौसम है, वो जिंदगी का कौन-सा मुकाम है जहां सुरों के बादलों से आनंद बख़्शी के चांद झलकते न हो। आनंद बख़्शी आज के लोक कवि हैं। आनंद बख़्शी आज के समाज के शायर हैं।

भाग 2 में उनके परिवार से जुड़े हुए बहुत सारे दुर्लभ चित्र हैं। भाग 3 में श्रद्धांजलि स्वरूप उनके बारे में संगीतकार प्यारेलाल, लता मंगेशकर, ए आर रहमान, गुलजार, समीर अंजान, इरशाद कामिल, अमिताभ भट्टाचार्य, मनोज मुंतिशर और विजय अकेला के विचार भी संकलित हैं।

चलते चलते

1990 के आसपास आनंद बख़्शी को अकेले जाने से डर लगने लगा था और आत्मविश्वास की कमी भी झलकने लगी थी। डॉक्टर की सलाह पर उन्होंने उन कामों को किया जो वह अपने संघर्ष के जमाने में किया करते थे और अकेले थे। उन्होंने फिर वही सब किया, मुंबई में अकेले सफर किया, घर में अकेले रहे ताकि इस डर से उबर सकें। उन्होंने वेस्टर्न रेलवे की लोकल ट्रेन का फर्स्ट क्लास का पास बनवा लिया था और कई महीनों तक हफ्तों में एक बार खार स्टेशन से मरीन लाइंस तक दोपहर के समय में यात्रा करनी शुरू कर दी और वह इन सबका जिक्र अपनी डायरी में भी करने लगे। जिसके दो अंश उल्लेखनीय हैं- 6 दिसंबर 1995 को उन्होंने लिखा- आज मैं मरीन ड्राइव पर समंदर के किनारे खड़ा रहा और समुद्र के देवता से प्रार्थना की और समुद्र से कहा कि मैं बस एक बूंद हूं जबकि वो सात समुंदर जितने विशाल हैं। ऊपर वाले की मदद से मैं इसी जीवन में अपने डर से मुक्त होना चाहता हूं। 31 जनवरी 1996 को उन्होंने लिखा- आज मैं दादर स्टेशन से भगवान दादा के पुराने ऑफिस तक पैदल चलकर गया। यहां से मैंने अपने फिल्मी करियर की शुरुआत की थी। भगवान दादा ने मुझे भला आदमी में गाने लिखने का मौका दिया था। इसके बाद मैं माहिम में उतरा और निर्माता हीरेन खेरा के पुराने दफ्तर में गया जहां मुझे अपनी पहली कामयाब फिल्म मेहंदी लगी मेरे हाथ के गाने लिखने का मौका मिला था। मुझे लगता है कि अपने अतीत की इन बेमिसाल और जज्बाती यादों को फिर से जीने के बाद मेरा डर अब खत्म हो रहा है। मुझे यह यात्राएं पहले ही कर लेनी चाहिए थीं…।

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