अजय कुमार शर्मा
भारत की आधुनिक सांस्कृतिक पहचान के दो विश्वव्यापी चेहरे रहे हैं- एक रवींद्रनाथ टैगोर और दूसरे सत्यजित राय। विश्व-प्रसिद्ध फ़िल्म-निर्देशक होने और देश विदेश के अनेकों प्रतिष्ठित पुरस्कार प्राप्त करने के बावजूद सत्यजित राय की आर्थिक स्थिति साधारण ही थी। अपने पूरे जीवन में उनके पास कभी इतना पैसा नहीं रहा कि वे अपना खुद का घर भी ख़रीद सकें। सार्वजनिक जीवन में वे अत्यंत ईमानदारी से आचरण करते थे। प्रारंभ की कुछ फ़िल्मों को छोड़ कर बाद की अपनी सभी फ़िल्मों में वे खुद ही संगीत भी देते थे, मगर वे निर्माता से केवल निर्देशन के लिए तय पैसा ही लेते थे।
एक बार उनके जीवन में कुछ अतिरिक्त पैसा कमाने का अवसर आया। दरअसल एक विज्ञापन कंपनी ने उन्हें और उनकी पत्नी को एक मशहूर चाय के विज्ञापन के लिए मॉडल के रूप में लेने की योजना बनाई। इस योजना का हश्र आखिर क्या हुआ इसके बारे में रोचक जानकारी सत्यजित राय पर विजय पाडलकर द्वारा लिखी मराठी पुस्तक के हिंदी अनुवाद- ‘सत्यजित राय सिनेमा और जीवन’ में मिलती है जिसे संवाद प्रकाशन ने हाल ही में प्रकाशित किया है।
जनवरी 1988 में क्लेरियन विज्ञापन एजेंसी के कुछ लोग सत्यजित राय के घर यह प्रस्ताव लेकर पहुंचे थे। तब सत्यजित राय कुछ काम में व्यस्त थे तो उनकी पत्नी विजया ने उनसे बातचीत की। उनके पुत्र संदीप भी तब वहां मौजूद थे। सत्यजित राय की उम्र तब 67 साल की थी। काम कुछ ज्यादा नहीं था। दोनों पति-पत्नी को बस हाथों में चाय का कप लेकर बैठना था और एक दो वाक्य बोलना था। कंपनी छोटे से विज्ञापन के लिए भारी रॉयल्टी देने को तैयार थी। विजया जी को लगता था कि इस विज्ञापन का काम उन्हें स्वीकार कर लेना चाहिए। इसका एक और कारण भी था। पिछले करीब पांच सालों में सत्यजित राय ने एक भी फ़िल्म निर्देशित नहीं की थी। इसके चलते आय एकदम घट गई थी। ऐसे में ही 1983 में उन्हें दिल का ज़बर्दस्त दौरा पड़ा था। उनकी दवाइयों का ख़र्च बहुत बढ़ गया था। चूंकि राय एक लोकप्रिय लेखक भी थे, इसलिए उनकी पुस्तकों और अनुवाद की रॉयल्टी से घर चलाने जितनी राशि मिल जाती थी। अंततः विजया जी ने क्लेरियन के अधिकारियों को हामी भर दी। जब यह बात संदीप को पता चली तो वह थोड़ा नाराज़ हो गया। चकित होती हुई विजया जी बोलीं, ‘इसमें क्या समस्या है? जब वे लोग आए थे, तब तो तुम वहीं पर थे। तब तुमने कुछ क्यों नहीं कहा?
‘देखो माँ, क्या पिताजी के स्तर के व्यक्ति का पैसों के लिए विज्ञापन में काम करना ठीक लगेगा? क्या तुमने यह सोचा है कि उन्हें इस बात का कितना बुरा लगेगा?’ इस पर विजया जी का जवाब था कि मैंने ऐसा विचार किया ही नहीं। मैं केवल विज्ञापन से मिलने वाले पैसों के बारे में ही सोच रही हूं । एक छोटे-से विज्ञापन के लिए वे लोग लाखों रुपया देने को तैयार हैं। मेरे कुछ ज़रूरी और रुके हुए कार्य इससे पूरे हो जाएंगे। तुम इस बारे में अपने पिता से कोई बात मत करना। बड़ी मिन्नत से मैंने उन्हें तैयार किया है।’
विज्ञापन एजेंसी के अधिकारियों को यह विज्ञापन कलकत्ता में शूट नहीं करना था। उन्होंने इसे राय बाबू की पसंदीदा जगह करने का निर्णय लिया था। सत्यजित राय ने उन्हें काठमांडू का सुझाव दिया। एजेंसी वाले इसके लिए तैयार हो गए। संदीप उस वक़्त किशोर कुमार पर एक डॉक्यूमेंट्री बना रहे थे और उन्हें मुंबई जाना था। इसके चलते सत्यजित, विजया जी और फ़ोटोग्रॉफ़र निमाई घोष तीनों काठमांडू चले गए। विजया जी समझ गईं कि संदीप नाराज़ है इसलिए बहाना कर मुंबई चला गया है। उनके मन में पहली बार यह संदेह उपजा कि वे जो कर रही हैं, वह ठीक है अथवा ग़लत।
काठमांडू में होटल ओबेरॉय में रॉय के रहने की व्यवस्था की गई थी। सुबह एजेंसी के लोग आए और उन्होंने हाथ में चाय के कप पकड़े इस जोड़े के अनेक फोटो निकाले। दूसरे दिन संदीप भी मुंबई से सीधे काठमांडू पहुंच गया। जब विजया जी ने उसे बताया कि विज्ञापन शूट हो चुका है, तो उसका चेहरा उतर गया। सत्यजित राय वहीं बैठे हुए थे। तब तक उन्हें भी अंदाजा हो गया था कि संदीप नाराज है। अचानक वे बोले, ‘यदि संदीप को उचित नहीं लगता होगा तो हम अभी भी उन्हें मना कर सकते हैं।’ विजया जी हक्का-बक्का रह गईं। इतना कुछ होने के बाद अब उन्हें कैसे ‘मना’ किया जा सकेगा?” उसमें क्या हुआ? अब मुझे लगता है कि इस विज्ञापन को स्वीकार कर मैंने गलती की है। मैंने पैसों को कभी भी बहुत महत्त्व नहीं दिया है। उनसे कह दो, मुझे यह स्वीकार नहीं है। उनसे यह भी कह दो कि काठमांडू आने-जाने और रहने का हमारा खर्च हम ही करेंगे।
राय ने सब-कुछ इतना साफ़-साफ़ कहा था कि विजया जी चुप ही रह गईं। उनके स्वास्थ्य को देखते हुए उन्हें ज़्यादा मानसिक कष्ट देना उचित नहीं था। विजया जी ने चुपचाप उस कंपनी को राय के इस निर्णय से अवगत करा दिया। अब आश्चर्यचकित होने की बारी कंपनी के लोगों की थी। उन्होंने विजया जी को समझाते हुए कहा कि ‘यदि राय बाबू को पैसों को लेकर कोई समस्या है तो कंपनी यह घोषित कर देगी कि राय बाबू ने इस विज्ञापन के लिए किसी भी तरह की रॉयल्टी नहीं ली है।’ लेकिन इस प्रस्ताव को भी सत्यजित अथवा विजया जी ने स्वीकार नहीं किया। आगे इस मुद्दे पर घर में कभी चर्चा नहीं हुई।
चलते चलते
सत्यजित राय की फिल्म अशानी संकेत का चयन बर्लिन के फ़िल्म महोत्सव के लिए हुआ था। समिति ने पांच लोगों को वहां आने का खर्चा उठाने की स्वीकृति दी लेकिन ईमानदार राय अपनी पत्नी को अपने खर्चे पर वहां ले गए। बर्लिन महोत्सव में अशानी संकेत को बेस्ट पिक्चर का अवार्ड मिला। आमतौर पर बेस्ट पिक्चर अवार्ड फिल्म के निर्माता को दिया जाता है, मगर महोत्सव की समिति ने राय से आग्रह किया कि यह पुरस्कार राय खुद स्वीकार करें। राय इसके लिए तैयार नहीं थे मगर महोत्सव की समिति ने इस तरह की घोषणा पहले कर दी थी अंतत: राय को ही यह पुरस्कार स्वीकार करना पड़ा। उनके निर्माता श्री भट्टाचार्य को यह बात अच्छी नहीं लगी। कुछ दिनों बाद वे सत्यजीत राय के घर पहुंचे और बोले, मेरी मां को हमारी फिल्म को मिले अवार्ड को देखने की बहुत इच्छा है। इसे आप मुझे दे दें , मैं उन्हें दिखाकर आपको वापस कर दूंगा। भट्टाचार्य अवार्ड लेकर तो गए मगर उन्होंने उसे फिर कभी वापस नहीं किया। विजया जी ने जब उन्हें कई बार इस बारे में याद दिलाया तब सत्यजीत राय ने कहा अगर अवार्ड निर्माता को ही मिलता है, वह ले गया, इस पर मेरी कोई शिकायत नहीं है। मैं उस अवार्ड को कभी वापस नहीं मांगूंगा…।
(लेखक, वरिष्ठ साहित्य एवं कला समीक्षक हैं।)