पूर्वी उत्तर प्रदेश के देवरिया जनपद में स्थित रूद्रपुर तहसील जहाँ विराजमान हैं स्वयंभू शिवलिंग, जिनकी प्रसद्धि दुग्धेश्वर नाथ के नाम से है, स्थानीय जन (दूधनाथ बाबा) के नाम से भी पुरकारते हैं, जो कि पूर्वांचल के प्रसिद्ध तीर्थ स्थलों में से एक है।
सबसे मुख्य बात ये कि यह शिवलिंग मानव निर्मित नहीं है, बल्कि अपने आप धरती के गर्भ से महादेव प्रगट हुए हैं। रूद्रपुर क्षेत्र उस समय सत्तासी नरेश का भूभाग हुआ करता था, राजा के राज्य क्षेत्र का विस्तार सत्तासी कोश में फैला हुआ था अंतः यह राज्य सत्तासी रियासत के नाम से जाना जाता है, सत्तासी नरेश इतिहास के पन्नों में समाहृत हो गये, लेकिन आज भी सत्तासी राज्य का नाम यहाँ के जनमानस के हृदय पटल पर विद्यमान है।
आज मैं बात करने जा रही हूंँ एक ऐसे शिवलिंग के बारे में, जिसकी चर्चा शिवपुराण व स्कन्दपुराण में वर्णित है। बात उस समय की है, सत्तासी राज में घना जंगल हुआ करता था। चरवाहे अपनी गाय चराने के लिए जंगल में आया करते थे, अचानक एक दिन अकाल्पनिक और अविश्वसनीय घटना घटी। जंगल में एक स्थान पर गाय आकर खड़ी हो जाती और गाय के थन से स्वतः दुग्ध प्रवाहित होने लगता, वह गाय नित्य इस स्थान पर आया करती और दुग्ध का अभिषेक कर वापस चली जाती थी, एक दिन चरवाहों ने इस घटना को अपने आँखों से देख लिया।
जब ये बात सत्तासी नरेश हरि सिंह को पता चली तो उन्होंने उस स्थान को खुदवाने का निर्णय लिया। कुछ ही गहरी खुदाई करने पर वहां पड़े शिवलिंग पर सबकी दृष्टि पड़ी। राजा ने मन बना लिया के क्यूँ ना शिवलिंग को अपने महल के समीप मंदिर बनाकर पुनः स्थापित किया जाए। दोबारा खुदाई प्रक्रिया प्रारम्भ हुई लेकिन शिवलिंग की गहाराई का आकलन कर पाना सरल नहीं था, जब-जब श्रमिक शिवलिंग को ऊपर की ओर खींचते उतना ही शिवलिंग धंसते जा रहा था। खुदाई करते-करते वह स्थल कुएँ का रूप ले लिया, श्रमिक थक हार कर राजा से हाथ जोड़ कहने लगे हे राजा अब हमारी क्षमता के बाहर है हम और नीचे की खुदाई नहीं कर सकते।
तब राजा महादेव के आदेश से उस स्थल पर एक भव्य मंदिर का निर्माण कराया गया तथा वाराणसी से प्रबुद्ध पंडित बुलाकर विधिवत पूजा पाठ कर बाबा को पुनः स्थापित किया गया। सत्तासी नरेश स्वयं बाबा की पूजा अर्चना प्रतिदिन करते थे, पौराणिक महत्व को देखते हुए रूद्रपुर को दूसरी काशी भी कहा जाता है। 20 एकड़ में फैली मंदिर परिसर जिसमें कि अद्भुत कलाकृति की झलकियाँ देखने को मिलेंगी 11वीं सदी में इस मंदिर का निर्माण अष्टकोण में किया गया था। मान्यता है कि श्री दुग्धेश्वर नाथ महादेव को महाकालेश्वर उज्जैन का उपलिंग कहा गया है।
द्वादश ज्योतिर्लिंग के समान रूद्रपुर के शिवलिंग की पौराणिक मान्यता है कि त्रयम्बकेश्वर महादेव के बाद दुग्देश्वर शिवलिंग धरती से 15 फीट भीतर है, मंदिर के मुख्य पुजारी का कहना है कि शिवलिंग का संबंध पाताल लोक से है, आज तक किसी ने भी शिवलिंग की गहराई का अंदाज़ा ही नहीं लगा पाया है। बाबा का दर्शन करने के लिए 14 सीढियां नीचे उतरना पड़ता है। निचले स्थल में एक कुआँ है, जिसमें दूधनाथ बाबा विराजमान हैं। महाकाल स्वरूप दुग्देश्वर नाथ बाबा का अभिषेक सभी श्रद्धालु दूध व जल से ही करते हैं, बारह मास बाबा दूध व जल में डूबे रहतें हैं।
वैसे तो साल भर यहांँ भक्तो का जमावड़ा लगा होता है, विशेषकर श्रावण मास व अधिक मास के अवसर पर भव्य मेले का आयोजन होता है। अन्य राज्यों व पड़ोसी देश नेपाल से बाबा का दर्शन करने श्रद्धालुगण आते हैं, चारों दिशाओं में गुंजित होता ओम नमः शिवाय व हर-हर महादेव का जाप भक्तों द्वारा भजन कीर्तन जिससे समस्त वातावरण शिवमय हो जाता है।
यहाँ आज भी पुराने घरों व खण्हरों की खुदाई होती है तो छोटे बड़े शिवलिंग धरती से निकल ही आतें हैं, जिससे ये पता चलता है कि यहांँ अनंत काल से महादेव की उपासना की जाती थी। इतिहासकारो का कहना है के यह मंदिर ईसा पूर्व के समय का है, मंदिर में बौद्धकालिन ईंटों का प्रयोग हुआ है।
जब भारत यात्रा पर प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्वेन सांग आये तब वह देवरिया के रूद्रपुर भी आये थे, जिसका प्रमाण आज भी अंकित है। मंदिर परिसर में एक स्थान पर चीनी भाषा में लिखावट अंकित है जो की अब धूमिल हो गयी है, जिसे पढ़ने का प्रयास बहुत से विद्वानों ने की, परन्तु लिखावट धूमिल होने के कारण वे पढ़ पाने में असफल रहे।
खेद इस बात की है के दस वर्ष पूर्व ही दुग्देश्वर नाथ को पर्यटक स्थल घोषित कर दिया गया है, लेकिन ना तो यहाँ श्रद्धालुओं के रूकने की उचित आधुनिक व्यवस्था है और ना ही जलपान हेतु कोई उच्चकोटि का उपाहार केन्द्र का निर्माण हुआ है जिसकी बहुत आवश्यकता है यहाँ।
प्रार्थना राय