सुनो
कभी नदियों को मुड़ते देखा है
पहाड़ों को ऊतरते देखा है
सूर्य की रौशनी से हिमालय पिघलते देखा है
हवाओं को पता पूछते देखा है
नहीं ना
अब मुझको
बनना है नदी जैसा धुनमयी,
जो अपनी धुन में पहुँचती हो अपनी मंजिल बनना है पहाड़ जैसा दृढ़,
जमीन पर टिक कर जिसको छूना है आसमान
बनना है हिमालय जैसा तटस्थ,
किसी टिप्पणी की तपिश पिघला नही सकती जिसे
बनना है हवा जैसा बेपरवाह बेखौफ़,
ढूंढ ही लेती है रास्ता
-शब्दिता शब्दमृणाल