देखती हूँ जिधर,
शहर आज वीरान है
गाँव हैं, पगडंडियां हैं,
खेत है, खलिहान हैं,
भटकती आत्माओं जैसा
आज प्रतीत होता है,
ना कोई यहां हँसता
और ना कोई रोता है,
लंबी लंबी कतारें गाड़ियों की
ना भीड़ दिखती है,
गुज़रे कोई इंसां बस यहां से,
राहें राह तकती हैं,
कैसी समस्या है खड़ी,
कैसी ये विपदा आई है,
कोरोना आन्दोलन में शामिल,
हर बहन भाई है
-सिंधु मिश्रा
रांची