शहादत की वह कहानी- प्रज्ञा मिश्रा

आज फिर याद आती है
शहादत की वह कहानी,
जरा याद करो कुर्बानी

जब खून के कतरे दीवारों से टकराए
तब ये मिट्टी बोली
ये रंग है वतनपरस्ती का आओ खेले
हम खून की होली
ओ डायर! नपुंसक कायर
कम पड़ी होगी तेरी गोलियां
हर जुबां, हर मुख में थी
वंदेमातरम की उद्दीप्त बोलियां
ये माटी तो माँ है,
इसके लिए मरते आए वीर अभिमानी
अमिट होते हैं खून से लिखे
इतिहास और अमर निशानी

-प्रज्ञा मिश्रा
पुणे