शायद तूलिका से केनवास पर उतार भी लूँ
तुम्हारी तस्वीर बिल्कुल वैसी ही
जैसी तुम हो
मगर कहाँ से लाउँगा वह फ्रेम
जिसमें उसे जड़ा जा सके
छन्द में मुक्त छन्द में या छन्दमुक्त होकर
तुम्हारी तारीफ में लिख तो डालूँ
वह कविता जो तुम्हारी हर अदा को दर्शाये
मगर कागज, कलम या स्याही कम न पड़ जाए
कोई जिल्दसाज़ ना बाँध पाये उस पर जिल्द
और वो किताब पेपर या पेपरबैक ही रह जाए
बन्दिशों में बाँध एक तराना बना
तुम्हें गाऊं और दोहराऊँ
चर-अचर सभी को सुनाऊँ
तुम्हीं बोलो कौन सा रूप प्रिय है तुम्हें
जहाँ हो वहीं रहना है
या जग में आना है बनकर एक सुन्दर रचना
-वीरेंद्र प्रधान
सागर, मध्य प्रदेश