जो हृदय-क्रौंच में देख अवसर, संधान करते तीर का,
उनके आगे क्या गायें हम, दर्द अपनी कुंवारी पीर का
विष बुझे तीरों के ऊपर, मीठे शहद का लेप करके,
वध किया जाता रहा है, यहां हर निहत्थे वीर का
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सर्जक सर्जन छोड़कर जब, लिखन लगे छल छंद
तो मति-मंद यहां पर बढ़ गए गए , हो गए पैदा पैदा तुक बंद
हो गए पैदा तुक बंद, वीणापाणि इनसे रह-रह हारी,
जे कविता के नाम पे, मुँह भर दै रये सबको गारी
-अश्विनी मिश्रा