आभासी दुनिया- निधि भार्गव

आभासी दुनिया पसंद
है न तुम्हें?
जो एक ही झटके में
आसमान से जमीन पर
लाकर पटक देती है
झूठ की बुनियाद पे टिकी
इमारत लाख बुलंद हो..
जब गिरती है तो …
बस ख़ाक ही बचती है।
क्यूँ भागती है जिंदगी..
मृगमरिचिका ..सी…
…….पीछे पीछे….
क्यों नहीं समझ पाती वो
अवहेलना और तिरस्कार
छींटाकशी जब वजूद पर
होती है…
तो तार तार हो जाती है
शख्सियत….
बचता है सिर्फ सन्नाटा
और अँधकार….
कचोटता है अंतर्मन…
जीने नहीं देती दागदार
टीसती चुभन….और
अंदर ही अंदर बिलखता है
फिर, खुद से खुद का द्वंद…

-निधि भार्गव मानवी