चित्रा पंवार
खिड़की से झांकती
दिसंबर की धूप
मेरे नाउम्मीद कानों में
जैसे अचानक आकर
कहा हो तुमने
लो मैं आ गया…
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दिसंबर की
ठंडी हवाओं ने
सोख ली है
माथे की नमी
जरूरत है
एक अदद चुंबन की…!
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सड़क किनारे
पेट में घुटने
और घुटनों में हाथ फसाए
सोने की नाकामयाब कोशिश करता
गठरीनुमा भिखारी
इस नतीजे पर पहुंचा
जून से अधिक
बेरहम है दिसंबर…
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जीने के लिए क्या चाहिए
रोटी और प्रेम
दिसंबर दोनों देता है
गेहूं बोए जा रहे हैं
तुम याद आ रहे हो…
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जब से छोड़े हैं पहनने
माँ के हाथ से बुने
डिजाइनदार स्वेटर
अब कोई स्त्री नहीं रोकती
बीच राह में
बहुत याद आता है
बचपन वाला वीआईपी दिसंबर…
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दिसंबर का भाग्य
जैसे गरीब की जिंदगी
धुंध ही धुंध
कोहरा ही कोहरा
दिन छोटा
काली घनी लंबी रात
उजाले की दूर-दूर तक
कोई गुंजाइश नहीं..!
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दिसंबर आ गया
वो नहीं आए!
प्रतीक्षा में हैं
गुड़, मूंगफली
और तिल के लड्डू जैसी
बे-सिर-पैर की
मेरी बातें…!
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अभी ठहरा हूं कुछ देर
तुम्हारे एक स्नेह निमंत्रण की आस में
मिटने से पहले
स्मृतियों में, स्पर्श में, प्रेम में बचा लो मुझे
अभी शेष हूं
पुकार कर तो देखो
दौड़ कर लग जाऊंगा गले
कल उत्तर में शायद
प्रतिध्वनि ही लौटे
फूटे घड़े सा क्षण-क्षण रीत रहा हूं
हर पल
बीत रहा हूं मैं
दिसंबर की तरह…
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देखना कभी, कहीं अचानक
साल के आखिरी दिन
जब मिलेंगे हम दोनों
उस दिन से
पलट जाएंगे
वर्ष के दोनों सिरे
साल शुरू होगा दिसंबर से
जनवरी पर खत्म होगा।
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जाओ दिसंबर
नाउम्मीद कर दिया तुमने तो
तुम भी जनवरी जैसे ही निकले यार!
धोखेबाज
फरेबी
हमें जुदा करने वाले
क्या तुम भी नहीं समझते
चले जाने का दर्द!
बिछड़ना क्या होता है
कितना तकलीफदेह है अलविदा कहना
जब तुम ही नहीं समझे
फिर कौन समझेगा दोस्त!