दिल वालों की दिल्ली ना जाने कब और कैसे इतनी बेदिल हो गई। ना जाने कौन यहां नफरतों के दरीचे बिछा गया और हवा खूनी हो गई। सब कुछ उखड़ा उखड़ा सा लग रहा था, जब से दंगों की वारदातों और उसकी तस्वीरों से सामना हुआ था और फिर उस इलाके में रहने वाले रिश्तेदारों, मित्रों से बातचीत हुई थी। आज़ की शाम प्रीति कुछ बेचैनी का एहसास कर रही थी। फिर भी अपने रोजाना के काम में व्यस्त थी। आज़ उसका अनमनापन उसे पुकार रहा था कुछ कहने के लिए, कुछ सुनने के लिए। अपने काम में वह इस कदर व्यस्त रहना चाहती थी मानो व्यस्त रहे भी और नहीं भी। अचानक बाहर सड़क पर गहमागहमी का माहौल बना, चहलकदमी बढ़ती सी गई जो तुरंत भगदड़ में तब्दील हो गया। सड़क पर दौड़ते भागते चेहरे, गलियों में मची हलचल, लोगों का हंगामा, मुहल्ले की आंखों में फैला दहशत सब के सब ये संदेश दे रहे थे कि कहीं सुखों को चीरती यह शाम क़त्लों वाली अभागी रात न बन जाए।
सरपट भागे जा रहे थे सभी अपने अपने घरों की ओर। बिना किसी एक्सीडेंट का रेस हो रहा था, जिसमें सभी विजयी होना चाह रहे थे। कुछ देर बाद सभी घरों से पुरुष निकल कर हर चौराहे पर इकट्ठे हो गए थे, जिसमें व्यापारी वर्ग का एक बड़ा हिस्सा शामिल था। अपनी दुकानों की सुरक्षा के लिए वे ऐसा कर रहे थे, कि ना जाने दंगाई आ जाएं और कहीं बड़ी बेरहमी से सामानों को तीतर बीतर करके लूट पाट न मचा जाएं और फिर उनकी दुकानों में आग न लगा दी जाए। दरअसल महानगर के दक्षिणी-पश्चिमी हिस्से में रहने वाली प्रीति और उसके आसपास के लोग आशंकित हो उठे थे कि पिछले हफ्ते ही तीन चार दिन पहले जो हादसा महानगर के पूर्वी हिस्से में हुआ था कहीं आज़ इधर न दुहरा दिया जाए। याद हो आया था समाचारों वाली तस्वीरों सा अंजाम। आंखों के सामने वही वही मंज़र गुजरने लगे, सड़क किनारे एक लाइन से कारों की तोड़ फोड़ की गई थी, बाइक्स भी टूटे पड़े थे फिर आग के हवाले कर दिए गए थे सब। जगह जगह बसों में भी तोड़ फोड़ आगजनी के समाचार मिले थे। कितनी क्रूरता रही होगी दिलों के अंदर कितनी घृणा, जब बेकसूरों और बेबसों को भी नहीं छोड़ा गया होगा।
सतर्क हो प्रीति अपने घर की सुरक्षा व्यवस्था को यथासंभव ठीक करने में जुट गई। फटाफट ऊपरी मंजिल से शुरूआत करती हुई ग्राऊंड फ्लोर पर आकर अपने पड़ोसियों से जानकारी लेने पहुंच गई थी। वह जहां सबके पास एक ही पुख्ता जानकारी थी कि दंगा भड़क उठा है और दंगाई अब इधर का रुख़ कर रहे हैं। गेट बंद कर लेने के बाद बेटे को एक कमरे में बंद हो जाने की हिदायत दे कर प्रीति राज़ को फोन करने लगी, कहां हो कब तक आ रहे हो, पूछने के लिए। पर फ़ोन तो आउट ऑफ़ रेंज जा रहा था। चिंता बढ़ी जा रही थी। आधे घंटे बाद राज़ घर आ गए, इंतज़ार में बैठी प्रीति ने तेज़ गति से दरवाजा खोला और घर के अंदर क़ैद हो गई अपने परिवार के साथ। हालांकि तकरीबन एक घंटे बाद तब तक पुलिस ने पूरी स्थिति पर काबू पा लिया था। पुलिस की गाड़ियों की गश्त से डरे हुए मन को राहत मिल रही थी कि स्थिति नियंत्रण में है। फिर उसके आधे घंटे बाद पुलिस ने अनाउंसमेंट भी किया, आप सभी अपने-अपने अपने घरों में जाएं। हम आपकी सुरक्षा में तैनात हैं। वे आश्वासन दे रहे थे घबराएं नहीं, आपकी सुरक्षा में पुलिस अपनी ड्यूटी पर है।
उस हादसे की शाम प्रीति को वे सारी बातें भी एक एक कर याद आती रहीं, स्मृतियां आंखों के सामने से गुजरती गईं। गुजरा हुआ मंजर चलचित्र की भांति, सुबह का समय, बुरी खबर, इंदिरा प्रियदर्शिनी नहीं रहीं, उनके सुरक्षा गार्ड ने उनकी हत्या कर दी। यह खबर दिल दहला देने वाली थी। लगभग लगभग सभी घरों में मायूसी का डेरा था और सब अवाक हो बैठ गए थे। चाहे समर्थक हों या विपक्षी सभी स्तबध। गृहणियां किचेन का रुख़ नहीं कर रही थीं। चूल्हे चुप थे, सबकी आंखों में पानी। पूरा देश शोक की लहर में बेसाख्ता डूबा हुआ। प्रीति खुद से कह रही थी कि मेरे नाना जी मुझे प्रियदर्शिनी कहा करते थे। याद है उसे गर्मियों की छुट्टियों में नानी मां के यहां जब नन्हीं सी प्रीति को पता चला कि कल एयरपोर्ट पर इंदिरा गांधी आने वाली हैं, तब उसने भैया को कैसे मना लिया था वहां चलने को। फिर अगले दिन देवमाला भवन की सख्ती की पहरेदारी में छुप-छुपा के छोटे-छोटे क़दमों से चल पड़ी थी प्रीति अपने बड़े भाई की स्नेहिल निगरानी में। नाना जी तो पहले ही जा चुके हैं हम सब से विदा लेकर, आज़ उनकी पसंदीदा नेत्री भी नहीं रहीं। उनके साथ मेरी उनसे मिलने की चाहत भी दफ़न हो गई, प्रीति ने तब सूनी आंखों से कहा था।
उस वक्त ड्राइंग रूम में टीवी अपनी खबरों से जानकारी दे रहा था, धीरे धीरे बुझे मन से सभी अपनी दिनचर्या में लग गए। देखते देखते शोक की लहर अब खतरनाक ज्वार भाटे में तब्दील हो चुकी थी उस छोटे से शहर में। स्थानीय खबर कानों कान आग की तरह फ़ैल गई, ठीक ऐसे ही जैसे आज दंगे की खबर खुद चल कर घर घर आ गई थी। उस दिन तब तक सबका अपनापा दहशत में कैद हो चुका था। अनजाने भय से लोग अपने अपने घरों में आने लगे, अपने बच्चों की हिफाज़त कैसे हो यही सोचने लगे। चारों तरफ अफरा तफरी का माहौल था, बच्चे अपने सवालों से घिरे हुए, कोई जवाब नहीं मिल पा रहा था उन्हें। चुपचाप अपने कमरे में बंद हो जाओ अभिभावकों की बस यही कोशिश थी। कब कौन सा हादसा हो जाए, अनहोनी की इसी आशंका में तमाम घर घिरे हुए थे। उस शहर के मुख्य बाजारों में दंगाई अपनी दरिंदगी का तांडव नृत्य जो कर रहे थे। उस खास वर्ग के लोगों की दुकानें चुन-चुन कर जलाई जा रही थीं, धू-धू कर जल रही दुकानें अपना अस्तित्व खो चुकी थीं और दुकानदार अपने अरमानों को आग के सुपुर्द होते देख आंसुओं को पी रहे थे। उन्हें पता ही नहीं चला आखिर हुआ क्या। उनकी गलती बस इतनी ही थी कि प्रधानमंत्री की हत्या करने वाले सुरक्षा गार्ड उनके ही संप्रदाय के थे।
हां, उस दिन कई जगहों पर तो दुकानों में बेरहमी से लूटपाट मचाई गई। उनके सामानों को लूट लिया गया, फिर आग के हवाले कर के आगे बढ़े जा रहे थे दंगाई और अधिक दंगों को अंजाम तक पहुंचाने के लिए। आखिर उन्हें अपने धर्म का निर्वहन जो करना था। इनका कोई धर्म नहीं होता सिवाय दंगा करने और करवाने के। हुआ वही था जो अक्सर होता है। कभी सुनियोजित तो कभी अचानक। नजरघात लगाए उपद्रवी सक्रिय हो गए। मानो उनके जलसे मनाने का समय आ गया और एक सांप्रदायिक दंगा भड़क उठा। सड़कें सुनसान हो गई, गलियां सूनी। दौड़ते पकड़ते खरोंचते नुकीले हाथ गलियों से बढ़ के घर के अहाते में भी घुसपैठ करने लगे थे। जो भी सामने आ रहा था उसे वे अपनी गिरफ्त में लिए जा रहे थे। मारने पीटने और जान से मार देने का तांडव बहुत भयानक था। हां उसी के मुहल्ले की बात है कि मुंडन संस्कार के लिए जिन नाती पोतों के बड़े-बड़े केश थे, उनकी नानी दादियों ने अपने ज़िगर के टुकड़ों को बचाने के लिए उनको अपने आंचल में छुपा लिया था अपनी ख़ामोश आहों के साथ। मन्नतों भरे उन बालों पर कैंचियां चला दी गईं। एक ऐसी चित्कार जिसे कोई सुन न सका। अपने सनातन धर्म की उस परंपरा को तिलांजलि दे दी गई जिसके लिए उनके घर आने वाले दिनों में कितने भव्य आयोजन होने थे। हां रीति रिवाज को बचाने के लिए उन्होंने बाल को सहेज लिया था उस मनहूस दिन में।
सूरज चढ़ते चढ़ते टीवी पर प्रसारित समाचारों में दिल्ली में भी भयंकर दंगे की बात कही जा रही थी। हालांकि उसके उस छोटे से शहर के लिए दिल्ली बहुत दूर थी। स्थिति बेहद नाज़ुक हो चली थी। चुन-चुनकर उन भाई बहनों पर निर्ममता से हमले हो रहे थे। दुकानें जल रही थी, लोग उस हिंसक घटना में सिसक रहे थे। कोई सुनने वाला नहीं था। बेघर हुए उन परिवारों को फिर से बसाया गया जबकि वे आज़ तक भी अपने ग़म को नहीं भूल पाए हैं, मानों उस दुःख का कोई मलहम ही नहीं बना हो, जिस अनिष्ट घड़ी में आगजनी, लूटपाट और हत्याओं का दौर चला था। कहते हैं ना कि सभी परंपराओं से ऊपर मां का आदेश मानने की परंपरा है हमारे देश में, उस दिन यहां भी ऐसा ही कुछ हुआ था जब अमुक परिवारों के बच्चों ने भी अस्थाई रूप से अपने पाक केश को उस नापाक दंगे के नाम अर्पण कर दिया। एक ऐसी घटना जिसे सोचकर ही आंखें रक्तिम हो जाती हैं, जिसका अनुभव प्रीति को अपनी शादी के बाद, उस घटना के कई बर्षों बाद इस समुदाय के दोस्तों से बात करके हुआ था, आज भी ताजा है। उनमें से एक मनजीत भी हैं। अक्सर मनजीत और प्रीति की फैमिली बंगला साहिब गुरुद्वारे एक साथ जाते रहते हैं, वह अनुभव आज भी क़ैद है उसके ज़ेहन में। कभी अरदास करने तो कभी ब्याह की रस्म में शामिल होने गुरूद्वारे जाना कितनी अच्छी यादों में से एक है, यही सोचते हुए प्रीति की होठों पर मुस्कुराहट चली आई थी और प्रीति ने भय की शक्ल में निकले अपने आंसुओं को पोंछ लिया था।
मन कितनी तेज़ गति से चलता है न, यह रुकता कहां है निर्बाध है यह तो। अपने जीवन में घटित होने वाली एक और घटना प्रीति के मानस पटल पर अंकित होने लगी। जब ऊपर घटित घटना के करीब पांच साल बाद एक और मनहूस शाम आई, दंगे के दस्तक के साथ। जब अचानक गली में घोड़ों की टाप सी आवाज़ आने लगी, तो घरों से लोग सोचने लगे आखिर हुआ क्या है? किशोरी प्रीति आज उस दिन की भी गवाह बन कर खड़ी थी, अपने ही सम्मुख। दरअसल एक भगदड़ सी मची थी, लोग अपने अपने घरों को भाग रहे थे। सभी अवरोधों को पार करती हुई बाधा रेस का परिदृश्य हो गया था। जिसे जहां सुरक्षित जगह मिल रही थी वहीं रुक जा रहे थे। फिर सतर्कता बरतते हुए घर पहुंच जाने की भी जल्दी थी। धूल के गुबार से गली भर गई थी जब खिड़की के झीने से देखा था उसने। धीमे-धीमे अंधेरा छा गया और रात गहराने लगी थी आशंकाओं भरी कालिमा के साथ। रात जागकर गुजारी गई। अगले कई दिनों तक आशंकित मन किसी अप्रिय घटना के हो जाने मात्र से सिहर उठता था। सच में वह दिन काला दिवस से कम न था। विरोध करने वालों की भड़काई आग में भाई भाई में घृणा फ़ैल गई थी, जैसे जंगल में आग फैल जाती है। मानो एक दूसरे को न देखने की कसम उठा रखा था उन्होंने। एक जाल सा बिछ गया था। नफ़रत का ऐसा साम्राज्य जिसकी सीमा से निकल जाना चाहते थे लोग।
यह बात उन दिनों की है जब एक विशाल यात्रा के बाद उधर श्रद्धा से भरे श्रद्धालु अपने आराध्य देव के प्रांगण से अपने साथ महाप्रसाद के रूप में एक एक ईंट लेकर अपने अपने घर को प्रस्थान कर रहे थे और इधर उनके अपने शहरों में, गांव, कस्बों में जवाब में पत्थरों की बौछार हो रही थी। दंगे फसाद हो रहे थे। आहिस्ता-आहिस्ता पूरा देश इसकी चपेट में आ गया था। बहुत कठिन समय था। छोटी मोटी वारदातों को अंजाम देने के बाद बड़े दंगे की पूरी संभावना थी, लेकिन उसके शहर में स्थिति पर काबू पा लिया गया था, सिस्टम की सजगता में। धारा 144 लागू कर दिया गया था। बाहर फंसे लोगों को अपने घरों तक पहुंचने में न जाने कितनी दिक्कतों का सामना करना पड़ा था। जागी रात में, छोटे बच्चे सो रहे थे बड़ों की मुस्तैदी में। बड़े बच्चे ऊंघ रहे थे, पर दहशत की पहरेदारी थी। कई दिनों तक भय के साए में जीने वाली जनता बहुत मुश्किल से उससे उबर पाई थी। देह पर मिले ज़ख्म न भरने वाले और मन मस्तिष्क पर पड़े निशान न मिटने वाले थे दोनों संप्रदाय के लोगों के लिए। ना जाने राम रहीम की इस पवित्र धरती में वैमनस्य के बीज बोने का काम कौन कर जाता है और हम निरीह प्राणियों की तरह बस अप्रिय घटना के बीत जाने का इंतजार करते रहते हैं, कितने अपनों को खो देने के बाद। रोज़ सुबह प्रीति के मुख्य दरवाजे पर सब्जी के लिए पूछने आने वाली शायरा भी उस दिन नहीं आ पाई। शहर में तनाव घटने पर अगली शाम शायद शायरा आई थी। अपने सिर पर सब्जी की टोकरी रखी आवाज लगाते हुए मां से पूछा था, दीदी सब्जी चाहिए। जैसे मां को उसका ही इंतजार था, मां ने कहा हां हां आ जाओ, गेट खुला है। फिर कहा था रुक जा, आ रही हूं चाबी लेकर। खुशी भरी आंखों से उसने अहाते में पोर्टिको के नीचे सिर से टोकरी उतार लिया था। ताज़ी ताज़ी सब्जियां और फिर भी मां का चुन-चुन कर मनपसंद सब्जी तराज़ू पर रखना और शायरा का चुपचाप मुस्कुराना, आज़ भी याद है। कितना दोस्ताना रवैया रहता है हमारा और मुट्ठी भर दंगाई हमारे प्रेम को नफ़रत की आड़ी से काटने में लिप्त रहते हैं।
वर्तमान पर अतीत कितना हावी हो गया था कि आज और बीते कल में कोई अंतर ही नहीं रहा था, प्रीति के लिए। तभी पुलिस की गाड़ी की सायरन की आवाज ने प्रीति के ध्यान को अपनी ओर खींचा तो वह अपने बालकनी में चली आई। भयमुक्त मन अब कुछ शांत था। फिर भी लग रहा था जैसे दिल्ली ह्रदयाघात से पीड़ित होकर आज़ कल मानो वेंटिलेटर पर आश्रित हो गई है। एक एक कर सारे वाकये याद आते चले गए। हमारे देश के हरे भरे बाग को नज़र लग जाती है जैसे। हम सब रंग बिरंगे फूल मुरझा से जाते हैं, अपनी अपनी मिट्टी में मिल जाने के लिए। लेकिन फिर भी खूशबू इतनी मिलनसार होती है कि हम फिर से अपनी मौजूदगी में खिल उठते हैं अपनी खुशियां साथ लिए हुए, अपना भाईचारा हाथ लिए हुए। हमें कौन मिटा सकता है भला। पर अफसोस तो इस बात का है कि नफ़रत फैलाने वाले हमें गुटों में बांट जाते हैं और हम एक होकर भी खामियाजा भुगत जाते हैं। आज प्रीति का मन कर रहा था फिर से अपने पापा की गुड़िया बन जाने का ताकि वो मासूमियत से प्रश्न पूछ सके, पापा दंगे क्यों होते हैं? दंगे कौन करते हैं? और उत्तर पाकर अपनी जिज्ञासा खत्म होने पर फिर से चहकने की खुशी पा सकती वह, काश!
दो चार दिन बाद सुनने में आया था कि दिल्ली पुलिस खामोश थी, निष्क्रिय थी, दंगे होने की जानकारी होने के बावजूद। लेकिन प्रीति की जानकारी में पुलिस तो पूरी तरह से सहयोगात्मक रूप से प्रयासरत नज़र आई। उस दिन तो उसकी गली के आगे वाली सड़क पर पुलिस की पेट्रोलिंग हो रही थी। दंगे की आशंका तो लगभग ख़त्म हो गई थी। अफवाहों का क्या है आते हैं चले जाते हैं। पक्ष विपक्ष का खेल चलता रहता है, जनता पिसती रहती है। फिलहाल तो शांति थी। घुटन भरी जिंदगी में, अभी कुछ चैन ही आया था कि उस दंगे की अनहोनी घटना के बाद इसी बीच एक वायरस आया, फ्रेंडली नहीं पेनडेमिक। वैश्विक महामारी का कहर। यह वायरस अपने साथ ऐसी महामारी लेकर आया जो न तो किसी पार्टी के फेवर में था न प्रोटेस्ट में। इसके आगमन से धरने प्रदर्शन धीरे धीरे धाराशाई होने लगे। इस वायरस को दुनिया का कोई एक या दो बाग़ पसंद नहीं आए। यह तो सर्व धर्म, समभाव की भावना लेकर आया। किसी एक का होके सांप्रदायिक होने का ढ़ोल जो नहीं पीटना था। इसे तो सजीव और निर्जीव सतहों पर रहना भाया वह भी अपनी छोटी अवधि के लाइफ़ स्पैन के साथ। पैनिक क्रिएट करना इसका मक़सद था या नहीं इसे नहीं पता था, पर मानव को उसकी की गई असंख्य गलतियों का एहसास दिलाने जरूर आया है यह कोविड-19। जैसे सचेत करना उसका धर्म था मानों। अब तो किमाम की खूशबू छिड़कने के बदले सैनिटाइजर शिकशिक होने लगे। मास्क में लिपटे मनुष्य दिखने लगे, हाथों में ग्ल्बस पहनना जरूरी हो गया। एक साथ लोगों के मिलने पर पाबंदी लगा दी गई। लगभग बेबस हो गया मानव। कोरोना से जंग लड़ने और उसे, ख़त्म करने में एक-एक व्यक्ति महत्वपूर्ण हो गया। एक दूसरे के सहयोग और सम्मान से ही कोरोना से लड़ाई जीतेंगे, यह संकल्प उठाया जाने लगा। पूर्ण बंदी के दौर में ऐसा लगने लगा पूरा देश एकता के सूत्र में बंध गया। दंगाइयों की भी शामत आ गई। निराशा का आवरण तो अब भी था फिर भी प्रीति ने गहरी सांस लेते हुए कहा चलो अच्छा हुआ, दंगा तो रूका।
-सुजाता प्रसाद