किसी भी समाज या देश के लिए शिक्षा एक बुनियादी आवश्यकता है। बिना शिक्षा को सशक्त बनाए किसी भी राष्ट्र की उन्नति की कल्पना नहीं की जा सकती है। पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने कहा हैं कि यदि शिक्षा ही न हो तो किसी समाज का जन्म ही न हो। परन्तु यह विधि की विडंबना ही हैं कि स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से लेकर आज तक सभी सरकारों का रवैया शिक्षा के प्रति उदासीन ही रहा है। लगभग 34 साल के एक लंबे अंतराल के बाद हाल ही में केंद्र सरकार द्वारा नई शिक्षा नीति को मंजूरी दी गई।
प्रधानमंत्री ने ट्वीट करते हुए नई शिक्षा नीति के पांच स्तंभों का उल्लेख किया। ये सभी पांच स्तंभ हैं- एक्सेस (सब तक पहुँच), इक्विटी (भागीदारी), क्वालिटी (गुणवत्ता), अफोर्डेबिलिटी (किफायत) और अकाउंटेबिलिटी (जवाबदेही)।
नई शिक्षा नीति में स्कूली स्तर से लेकर उच्च शिक्षा तक के ढांचे में व्यापक बदलाव किया गया है ताकि 21वीं सदी की आवश्यकता के अनुरूप शिक्षा व्यवस्था को विश्व स्तरीय बनाया जा सकें। नई नीति का लक्ष्य भारत को वैश्विक ज्ञान महाशक्ति बनाना है। अब आवश्यकता इस बात की हैं कि नई शिक्षा नीति को, राजनीतिक विवाद का केंद्र न बनाकर, यथार्थ रूप में यथाशीघ्र लागू किया जाये।
नई नीति में स्कूली शिक्षा के पुराने ढांचे को तिलांजलि दे दी गईं है। अब स्कूली शिक्षा 10+2 की जगह पंद्रह साल की होगी और इसका ढांचा चार स्तर (5+3+3+4) का होगा। पहला फाउंडेशन स्तर (प्री प्राइमरी से दूसरी कक्षा तक के लिए) होगा, जो पांच साल के लिए होगा। प्रारंभिक (कक्षा तीन से पांच तक के लिए) और मिडिल (कक्षा छह से आठ तक के लिए) तीन-तीन साल का होगा।
वहीं सेकेंडरी स्तर (कक्षा नौ से बारह तक के लिए) चार साल के लिए होगा। फिलहाल प्री-प्राइमरी के बच्चों के लिए आंगनबाड़ी की व्यवस्था की गयी है। नई नीति में स्कूली शिक्षा के संदर्भ में प्राइमरी स्तर पर स्थानीय या क्षेत्रीय भाषा में शिक्षा प्रदान कराने का प्रावधान किया गया हैं जिसमें अंग्रेजी को केवल एक विषय के रूप में ही पढ़ाया जाएगा। शिक्षा नीति में बोर्ड परीक्षाओं के संदर्भ में बड़े बदलाव की बात कही गयी हैं जिसमें छात्रों को अंक सुधारने हेतु साल में दो बार परीक्षा देने की अनुमति दिए जाने का विचार है।
विडंबना यह हैं कि कला हमारी संस्कृति में विधमान हैं, समाज में विधमान हैं, घर एवं आंगन में विधमान हैं, खेत खलिहान में विधमान हैं, लेकिन यदि कहीं नहीं हैं तो शिक्षा के क्षेत्र में नहीं हैं। जब बालक स्कूल में जाता हैं तो कला के अंकुर अपने साथ लेकर जाता हैं परंतु स्कूल में प्रवेश पाते ही कला स्कूल के दरवाजे के बाहर रह जाती हैं। स्कूल के अंदर उसके लिए कोई व्यवस्था नहीं होती है।
यह कहना अतिश्योक्तिपूर्ण नहीं होगा कि स्वतंत्रता के बाद लागू की गयी लगभग सभी शिक्षा नीतियों में, विधार्थी जीवन के सर्वांगीण विकास में सहायक इस कला को हर बार उपेक्षित किया गया और परिणामस्वरूप कला को स्कूल के दरवाजे पर ही खड़े रहकर इंतजार करना पड़ा।
नई शिक्षा नीति का मुख्य उद्देश्य स्कूली स्तर की शिक्षा को तोता रट शिक्षा प्रणाली से बाहर निकालकर कलात्मक, तार्किक, गुणवत्तापूर्ण एवं व्यवसायिक बनाना हैं ताकि विधार्थियो का सर्वांगीण विकास कर उन्हें एक ऐसा सर्वश्रेष्ठ नागरिक बनाया जा सकें जो अपनी क्षमतानुसार देश के आर्थिक एवं सांस्कृतिक विकास में सहायक सिद्ध हो।
वर्तमान में जटिल हो चुकी उच्च शिक्षा को नई नीति में, यूरोपीय एवं पश्चिमी देशों की तर्ज़ पर, लचीला स्वरूप प्रदान करने का प्रस्ताव किया गया है। उच्च शिक्षा सचिव अमित खरे ने कहा है कि इस लचीलेपन का उद्देश्य छात्रों की प्रतिभा को पूरी तरह से निखरने का मौका देना हैं, चाहे वह किसी भी क्षेत्र में हो।
इसके अंतर्गत विज्ञान, कामर्स एवं मानविकी के छात्रों को इच्छानुसार, वैकल्पिक विषय के रूप में, एक दूसरे के विषयों को पढ़ने की छूट प्राप्त होगी। समय, धन एवं संसाधनों की बचत को ध्यान में रखते हुए सभी विश्वविद्यालयों के लिए एक ही प्रवेश परीक्षा का आयोजन कराया जाएगा। तीन साल के बैचलर प्रोग्राम को पूरा करने के बजाय अब छात्रों को हर साल की पढ़ाई का प्रमाणपत्र दिया जाएगा।
तीन साल की पढ़ाई पूरी करने के पश्चात ही बैचलर डिग्री प्रदान की जाएगी। अपरिहार्य कारणों से बीच में ही पढ़ाई छोड़ने वाले छात्रों को एक अंतराल के बाद, मल्टी एंट्री एवं एग्जिट स्कीम के तहत फिर से पढ़ाई शुरू करने की सुविधा प्रदान की जाएगी जो कि एक स्वागत योग्य कदम हैं। इस कदम से उन सभी छात्रों को लाभ प्राप्त होगा जो किसी भी कारण से पढ़ाई बीच में छोड़कर चले जाते हैं। इससे एक ओर जहाँ छात्रों को पढ़ाई बीच में छोड़ते हुए भविष्य की अनिश्चितता रूपी मानसिक तनाव से होकर नहीं गुजरना पड़ेगा।
दूसरी ओर पढ़ाई बीच में ही रूक जाने के कारण होने वाले आर्थिक नुकसान से भी बचा जा सकेगा। डिजिटल स्तर पर विभिन्न उच्च शिक्षा संस्थानों में एकेडमिक बैंक आॅफ क्रेडिट बनाया जाएगा। यह एक प्रकार का डिजिटल क्रेडिट बैंक हैं जिसमें छात्रों द्वारा किसी एक संस्थान या प्रोग्राम से प्राप्त क्रेडिट को किसी दूसरे प्रोग्राम या संस्थान में स्थानांतरित किया जा सकेगा। उच्च शिक्षा को गुणवत्तापूर्ण स्वरूप प्रदान करने एवं प्रभावी क्रियान्वयन सुनिश्चित करने के लिए हायर एजुकेशन कमीशन आॅफ इंडिया का गठन किया जाएगा।
कानून एवं मेडिकल शिक्षा को इस आयोग के क्षेत्राधिकार से बाहर रखा गया है। उच्च शिक्षा में शोध एवं अनुसंधान के क्षेत्र में रूचि रखने वाले छात्रों के लिए बीए का कोर्स तीन के बजाय चार साल का होगा। एमए और पीएचडी की कड़ी एमफिल को समाप्त घोषित कर दिया गया है।
उच्च शिक्षा में शोध एवं अनुसंधान को बढ़ावा देने के उद्देश्य से नेशनल रिसर्च फाउंडेशन के नाम से एक नई संस्था का गठन किया जिसमें यूजीसी समेत अन्य सभी निकायों का विलय किया जाएगा। इसके अतिरिक्त मल्टी डिसिप्लिमरी एजुकेशन एंड रिसर्च यूनिवर्सिटी बनायी जाएगी जोकि भारत में शोध स्तर को गुणात्मक, विश्वसनीय एवं विश्व स्तरीय बनाने में लाभदायक सिद्ध होगी।
इससे शोध छात्रों की एक मजबूत नींव तैयार की जा सकेगी और भविष्य में भारत शोध कार्यों के क्षेत्र में विश्व पटल पर एक नयी पहचान बना सकेगा। गौरतलब हैं कि शोध एवं अनुसंधान के क्षेत्र में भारत का पिछड़ापन किसी से छिपा नहीं है। नई नीति इस दिशा में एक उम्मीद की किरण लेकर आई है।
उल्लेखनीय हैं कि 1985 में राजीव गांधी की सरकार में शिक्षा मंत्रालय का नाम बदलकर मानव संसाधन एवं विकास मंत्रालय कर दिया गया था। नई शिक्षा नीति में फिर से इसे शिक्षा मंत्रालय कर दिया गया है जो उचित जान पड़ता है क्योंकि शिक्षा का उद्देश्य मानव को संसाधन मात्र समझकर उसका विकास करना नहीं हैं बल्कि उसे सभ्य बनाना भी हैं ताकि वह अपनी क्षमताओं को पहचान कर व्यक्तिगत एवं समाज हित में कार्य कर सकें।
स्वतंत्र भारत के प्रथम शिक्षा मंत्री मौलाना आजाद ने शिक्षा के ऊपर किये जा रहे कम खर्च और महंगी होती जा रही शिक्षा की ओर तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का ध्यान दिलाते हुए कहा था कि शिक्षा बजट भी उतना ही कर दीजिए जितना सेना का बजट हैं परंतु आज तक इस दिशा में कोई खास प्रगति नहीं हुई और यह विषय हमेशा विवाद एवं उपेक्षा का शिकार ही अधिक रहा है।
यही एकमात्र कारण हैं कि भारत शिक्षा के क्षेत्र में विश्व के सम्मुख पिछड़ता गया और भारत के लगभग सभी विश्वविद्यालय केवल डिग्री बांटने के केंद्र बनकर रह गए। पश्चिमी एवं यूरोपीय देशों की तो बात ही छोड़ दीजिए वरन् एशिया में चीन एवं जापान, शिक्षा के क्षेत्र में अपनी जीडीपी का भारत की तुलना में कहीं ज्यादा खर्च करते है। नई नीति में इस कमी को दूर करने के लिए जीडीपी का 6 प्रतिशत शिक्षा पर खर्च करने का लक्ष्य रखा गया है जो वर्तमान में 4.43 प्रतिशत है।
एनईपी, 2020 के तहत उच्च शिक्षा में सकल नामांकन अनुपात (जीवीआर) को 2035 तक पचास फीसदी तक बढ़ाए जाने का लक्ष्य रखा गया है। वर्तमान में यह 27 फीसदी है। इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए उच्च शिक्षा में 3.5 करोड़ सीटें जोड़ी जाएगी। वहीं 2030 तक स्कूली शिक्षा में शत-प्रतिशत जीईआर के साथ पूर्व विधालय से माध्यमिक स्तर तक की शिक्षा के सार्वभौमीकरण का लक्ष्य रखा गया है।
देश में छात्रों एवं शिक्षकों के लिए अनुकूल माहौल तैयार किये जाने की आवश्यकता हैं ताकि गुरू एवं शिष्य की प्राचीन उच्च परंपरा को यथावत जारी रखा जा सकें क्योंकि अच्छे छात्र ही आगे चलकर योग्य शिक्षक में परिणत होंगे।
निस्संदेह यह बात सत्य हैं कि देश में प्राथमिक स्तर से लेकर उच्च स्तर तक शिक्षा बुनियादी संकट का सामना कर रही है। अब आवश्यकता इस बात की हैं कि केन्द्र एवं सभी राज्य सरकारें मिलकर उच्च राजनीतिक इच्छाशक्ति का परिचय देते हुए यथाशीघ्र नई शिक्षा नीति, 2020 को यथार्थ रूप में कार्यान्वित करें।
वहीं इसके मार्ग में सबसे बड़ी बाधा साबित होने वाली नौकरशाही को नियंत्रित करने की आवश्यकता है। यह सर्वविदित हैं कि कोई नीति चाहे कितनी भी अच्छे से तैयार क्यों न की गई हो, यदि उसे उचित रूप में लागू नहीं किया जाता हैं तो वह अपना मूल उद्देश्य खो देती है।
अत: नई शिक्षा नीति के अंतर्गत वर्तमान शिक्षा प्रणाली में जिस आमूलचूल बदलाव का उल्लेख किया गया हैं, वह बदलाव की झलक शीघ्र ही यथार्थ के धरातल पर दिखाई दे अन्यथा यह नीति भी पूर्व की नीतियों के समान कागज़ों का ढेर ही साबित होगी और यह कहना कि 21वीं सदी केवल भारत की सदी होगी, एकमात्र कल्पना ही अधिक साबित होगी।
प्रो. अनामिका
अस्सिस्टेंट प्रोफेसर
दिल्ली विश्वविद्यालय