मानव जाति की जन्मदात्री है नारी। समाज के विकास क्रम में उसका योगदान सदैव से ही उल्लेखनीय रहा है। नारी माँ के रूप में सृष्टा है, तो पत्नी के रूप में परिवार की संचालक, सलाहकार तथा पति की सच्ची मित्र होती है।
नारी पीढ़ियों को सच्चरित्र और संस्कारित कर राष्ट्र के भविष्य को उज्जवल और सशक्त बनाती है। इसके बावजूद पुरूष प्रधान समाज के अधिसंख्य वर्ग द्वारा नारी का षोषण किया जाता है, उसे प्रताड़ित किया जाता है तथा उसे पैर की जूती समझा जाता है। यह हमारे समाज की बहुत बड़ी विडंबना है जबकि नारी की दुनिया को अधूरी रखना या उन्हें अपने से कम समझना किसी भी दृष्टि से उचित नहीं है।
ऐसा नहीं है कि सदा से ही नारी की स्थिति इतनी त्रासद रही है बल्कि वैदिक काल में नारी को गौरवपूर्ण स्थान प्राप्त था। ऋग्वेद में नारी की शिक्षा का समुचित प्रबन्ध था, नारी का उपनयन संस्कार भी किया जाता था। वह किसी भी विषय मे शास्त्रार्थ करने मे समर्थ थी तथा तत्कालीन नारियों ने ऋग्वेद के अनेकों सूक्तों की रचना की है। घोषा, विश्वरा, लोपामुद्रा, लोमशा, अपाला, इन्द्राणी, यमी, ममता, श्रद्धा आदि स्त्रियों ने अनेकों मंत्रों की रचना की है।
उत्तर वैदिक काल में भी नारी शिक्षा पर विशेष ध्यान दिया जाता था। महिलायें गुरुकुलों व आश्रमों में रहते हुए अध्ययन करती थीं, परन्तु धीरे-धीरे महिलाओं की स्थिति में गिरावट आती गई। उन्हें शिक्षा के लिए गुरुकुल इत्यादि में जाने से रोक दिया गया। केवल कुलीन परिवारों की स्त्रियां ही शिक्षा की हकदार बनती गयीं।
महाकाव्य काल में स्त्री का उपनयन संस्कार बंद कर दिया गया। तदनन्तर विदेशी आक्रान्ताओं के आगमन और देश के छोटे-छोटे राज्यों में आपसी युद्धों ने नारी को घर की चारदीवारी के अन्दर रहने को मजबूर कर दिया और परिवार में पुत्री की अपेक्षा पुत्र के अधिकार निरंतर बढ़ते चले गये।
प्राचीन काल से ही नारी एक ओर तो जगत जननी के रूप में दिखायी देती है तो दूसरी ओर रती स्वरूपा। लेकिन कल और आज में एक वृहत्त अन्तर दिखायी देता है। कल तक पुरूष के चरित्र को संवारने के लिए प्रयत्न किये जाते थे तथा पुरूष को सतत् इन्द्रिय निग्रह का पाठ पढ़ाया जाता था, किन्तु आज संस्कारिक पुरुष की बात तो पूरी तरह बिसरा दी गई है। अब चरित्र की सारी जिम्मेदारी नारी को सौप दी गई है। उसे कॉठ की हॉडी बना दिया गया है, जो गैर पुरुष के हाथ लगाते ही अपवित्र हो जाती है।
वैसे अब समाज का एक वर्ग नारी को भी पुरूष के समान स्वतंत्रता व स्वच्छंदता के अधिकार की बात करने लगा है। स्वामी विवेकानन्द भी नारी को आत्मनिर्भर बनाना चाहते थे, वे चाहते थे कि स्त्रियों में इतनी सामर्थ्य होनी चाहिए कि वे अपनी रक्षा स्वंय कर सकें। स्वामी विवेकानन्द का कहना था कि जो राष्ट्र स्त्रियों का आदर नहीं कर सकते वो कभी बड़े नहीं हो सकते। अमेरिकन पुरुष महिला को अच्छी दृष्टि से देखते हैं, उत्तम व्यवहार करते हैं। इसीलिए वह राष्ट्र सम्पन्न है।
महात्मा गाँधी ने भी स्त्री जाति को अपने रचनात्मक कार्यक्रमों में महत्त्वपूर्ण स्थान दिया था तथा उन्होंने नारी शक्ति के विविध रूपों का गहनता से विश्लेषण किया था। उनकी दृष्टि में नारी-साक्षात् त्याग की मूर्ति, कर्मठ तथा लग्न की पक्की थी। क्योंकि जब वह किसी काम में जी जान से लग जाएं तो पहाड़ तक हिला सकती है। किन्तु इतनी सशक्त होने के बावजूद भी नारी को अबला बनाकर रख दिया गया है।
राष्ट्रीय कवि मैथिलीषरण गुप्त ने लिखा है कि ‘अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी, आंचल में है दूध और आँखों में पानी। वहीं महात्मा गाँधी नारी को अबला नहीं मानते थे, उनके विचार में स्त्री को अबला कहना उसका अपमान करना था।
जयशंकर प्रसाद ने सारी को साक्षात् श्रृद्धा कहते हुए कहा है कि नारी तुम केवल श्रृद्धा हो, विश्वास रजत पग नभ तल में, पीयूष स्रोत-सी बहा करो, जीवन के सुन्दर सममतल में। महात्मा गाँधी, जयशंकर प्रसाद के विचारों के बहुत बड़े समर्थक थे। वे श्रृद्धा को धैर्य का मूल मानते थे।
इसी प्रकार मनु ने लिखा है कि यत्र नारयस्तु पूजयन्ते रमन्ते तत्र देवता। इतना ही नहीं उसके मातृ स्वरूप को लक्ष्मी, दुर्गा और सरस्वती के रूप में भी प्रतिस्थापित किया गया है और उसे प्रत्येक स्थिति में सम्मान दिया गया है, वह चाहे कर्ण को जन्म देने वाली कुंती हो या भरत की जननी शकुंतला।
जब-जब भी किसी युग में नारी की शिक्षा-दीक्षा पर ध्यान किया गया तथा उसका आत्मबल बढ़ाया है, तब-तब वह सशक्त हुई है तथा राष्ट्र व समाज की उन्नति में योगदान देकर अपनी महानता, त्याग और बलिदान को स्वर्ण अक्षरों में अंकित किया है।
यही कारण है कि आज भी ऐसी अनेक महान नारियों को श्रृद्धा और आदर के साथ स्मरण किया जाता है। उनकी कहानियाँ और प्रेरक प्रसंग पाठ्यक्रम में सुनायें और पढ़ाये जाते हैं। उनके नाम से उनकी स्मृति में शिक्षा संस्थान खोले जाते हैं।
समाज के निर्माण में भी नारी का महत्वपूर्ण स्थान है। इतिहास पर दृष्टि डालें तो हमें पता चलता है कि समाज की नींव डालने का श्रेय सर्वप्रथम नारी को ही दिया जाता है, परन्तु नारी की स्थिति सदा बंदिशों में जकड़ी रही है और हर काल में समाज ने नारी की भावनाओं से खिलवाड़ किया है।
गुप्तकालीन स्मृति ग्रन्थ स्त्रियों को वैदिक शिक्षा देने की अनुमति नहीं देते थे, फिर भी उच्च कुल की स्त्रियां शिक्षा ग्रहण करती थीं। इस युग में शिला भट्टारिका आदि महिलायें कवयित्री और लेखिकाओं के रूप में प्रख्यात रही हैं। मण्डन मिश्र की पत्नी ने शंकराचार्य को शास्त्रार्थ में हरा दिया था।
राजपूतकाल में भी स्त्रियां शिक्षित थीं। संस्कृत पढ़ती थीं, सार्वजनिक कार्यां में भी हिस्सा लेती थीं, नृत्य, चित्रकला सीखती थीं। इनमें प्रमुख हैं इन्दूरेखा, मरूला, सुभद्रा, लक्ष्मी, मोनिका, पद्मश्री और नन्दालसा इस काल की प्रसिद्ध कवयित्रियां रहीं हैं।
वर्तमान में नारी शिक्षा की स्थिति तो काफी सुदृढ़ हुई है, परन्तु फिर भी नारी के सम्मुख बहुत सी समस्याएं हैं। आज भी अधिकतर स्त्रियां पुरूषों पर आश्रित हैं तथा अनेक स्त्रियों को घर में अमानवीय व्यवहार सहना पड़ता हैं।
स्त्रियों की भावनाओं को कुचलते हुए बड़ी संख्या में कन्याएँ जन्म से पहले कोख में ही खत्म कर दी जाती हैं। इस कारण से स्त्रियों की संख्या पुरूषों के अनुपात में कम हो रही है।
यही कारण है कि स्त्रियों के साथ यौन दुर्व्यवहार की घटनायें दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ रही हैं। सच मानिये स्त्री समाज का आइना होती है। जिस देश में स्त्री जितनी स्वावलम्बी, शक्तिशाली और शिक्षित होगी वह देश उतना ही अधिक सशक्त होगा।
प्राचीन भारत के इतिहास पर नजर डालें तो अनेकों दृष्टांत ऐेसे हैं कि जहाँ महिलाओं ने रणभूमि में सक्रिय रहकर अपना योगदान दिया जैसे- राजा दशरथ की रक्षा रणभूमि में कैकेयी ने, अंग्रेजों के अधिकार से भारत को मुक्त कराने में झांसी की रानी लक्ष्मी बाई और कित्तूर की रानी चैन्नमां के साथ-साथ अनेकों महिलाओं ने अपनी कुर्बानी दी है।
परन्तु वर्तमान में देखा जा रहा है कि कुछ महिलाएं शिक्षित होने के बावजूद भटकाव की राह पर अग्रसर हैं, उन्हें समझना होगा की शिक्षित होने का अर्थ स्वछन्द जीवन जीना या पुरूषों के समान वस्त्र पहनना ही नहीं, अपितु स्वाभाविक तथा साधारण जीवन जीते हुए समाज कल्याण के कार्य करने होंगे।
क्योंकि एक नारी की शिक्षा से सम्पूर्ण परिवार तो शिक्षित होता ही है, साथ ही आने वाली पीढ़ियों तथा राष्ट्र पर इसका प्रभाव पड़ता है। कुछ नारियां आर्थिक तंगी के कारण शरीर को व्यवसाय बना रही हैं। तो कुछ नारियां विदेशी संस्कृति को अपनाने की होड़ में अपना सब कुछ दांव पर लगा दे रहीं हैं। स्त्री को स्वयं सम्भलना होगा तभी वह एक संस्कारवान पीढ़ी को जन्म दे सकती है।
उसे अपना उत्साह बनाये रखना होगा तथा उसे अपनी दुगनी हिम्मत से काम लेना होगा। वह अपने हित में ही नहीं अपितु उसे दूसरों के हित के लिए भी सदैव तैयार रहना होगा, तब ही वह महान बनी रह सकती है।
स्त्री महानता के अनेकों उदाहरण मौजूद है जैसे झांसी की रानी लक्ष्मीबाई, अवध की बेगम हजरत महल, ऐनी बेसेंट, सिस्टर निवेदिता, कस्तूरबा गांधी, सरोजनी नायडू, राजकुमारी अमृत कौर, कमला नहेरू, दुर्गा भाभी, सुचेता कृपलानी, श्रीमति इन्दिरा गांधी, मदर टेरेसा, लता मंगेशकर, कल्पना चावला, साईना मिर्जा, सायना नेहवाल, प्रतिभा पाटिल, सोनिया गांधी, मायावती आदि। अतः सशक्त राष्ट्र बनाने के लिए सशक्त नारी का होना अति आवश्यक है बिना नारी के सशक्त राष्ट्र की कल्पना करना ही निरर्थक है।
कन्या भ्रूण हत्याओं की बढ़ती प्रवृत्ति हमें सोचने पर मजबूर करती है, क्योंकि कन्याओं की कम होती संख्या भविष्य में अराजकता का कारण बन सकती है। यदि ऐसा हुआ तो समाज और राष्ट्र दोनों ही कमजोर होंगे।
अतः यह आवश्यक हो जाता है कि नर-नारी अनुपात का संतुलन बनाये रखा जाये तथा नारी के व्यक्तित्व विकास, शिक्षा तथा स्वावलंबी बनने के समुचित अवसर प्रदान किये जायें, जिससे कि उसका आत्मविश्वास और मनोबल उस स्तर को छू सके, जहाँ पहुँचकर वह स्वयं को अबला के स्थान पर शक्तिशाली महसूस कर सके और एक सशक्त राष्ट्र के निर्माण में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभा सके।
डॉ प्रेमपाल सिंह वाल्यान
गाजियाबाद, हापुड़-245101,
उत्तर प्रदेश