प्रेम के अवशेष को समेटे: रूची शाही

तुम्हारे जाने के ठीक बाद ही
मेरी आँखों के अश्कों ने बो दिए
हज़ारों कविताओं के बीज
जो कभी बंजर होने नहीं देगा
तुम्हारी यादों की मिट्टी को

इन कविताओं में जिक्र होगा
तुम्हारे साथ जिये गए हर लम्हें का
तुम्हारी शर्ट के टूटे बटन से लेकर
कबर्ड में पड़े कपड़ों का
तुम्हारे बेडरूम की बेड शीट से लेकर
उस बेड में पड़ी सिलवटों का
किचन से आती प्याज़-लहसून के गंध का
खिड़की के बाहर मुस्कुराते चीकू के पेड़ का

उन कविताओं में जिक्र रहेगा
उस नदी के पास पड़े उन पत्थरों का
जिसपे तुम्हारी देह की ओट से लगकर
मैं बैठ के हज़ारों बातें करती थी
अपनी सारी बेचैनियों से निजात पाकर
तुम्हारे कांधे पे सिर रख सुस्ताया करती थी
उसमें जिक्र होगा कि किस तरह
तुम धीरे-धीरे अनमने से होने लगे
और मैं बेजान उन पत्थरों की तरह
जो हमेशा रहेंगे उस नदी के किनारे

सिसकियां भरेंगी वो कविताएं
जब जिक्र आएगा
टूटे हुए वादों और कसमों का
हज़ारों उंगलियां भी उठेंगी
मेरे स्वभाव और चिड़चिड़ेपन पर
और मुखर हो जाएगी उन कविताओं की आह
कि जब जिक्र आएगा
तुमने उसे चाँद कहा था

प्रेम के अवशेष को समेटे वो कविताएं
फिर भी मुस्कुरायेंगी
क्योंकि उनमें जिक्र सिर्फ और सिर्फ
तुम्हारा ही होगा

रूची शाही