शहीद भगतसिंह भारतीय इतिहास के एक ऐसे युगपुरूष हैं, जिन्होंने स्वतन्त्रता संग्राम में स्वयं को बलिदान करके न केवल एक आदर्श प्रस्तुत किया वरन् एक चिंतक के रूप में क्रान्तिकारी विचारधारा का आधार भी रखा। भगर सिंह की स्पष्ट जीवन दृष्टि समय-समय पर युवाओं का मार्गदर्शन करती रही है। भगतसिंह की विरासत इसी बिंदू से आरम्भ होती है। कोई भी चिंतनधारा समय के अनुरूप यदि स्वयं को ढाल लेती है तो वह जीवित रहती है अन्यथा वह ऐतिहासिक महत्त्व की वस्तु बनकर रह जाया करती है।
भगतसिंह की विचारधारा मूलतः मार्क्सवादी चिंतनधारा से जुड़ी हुई इै, इस दृष्टिकोण से सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक और धार्मिक दृष्टि से जिन्होंने चिंतन-मनन किया है, निस्सन्देह वे हर प्रकार से भगतसिंह की विचार धारा से जुड़े हुए हैं। इस विचारधारा में समय ने जो विकृतिया उत्पन्न की हैं, उन्हें भगतसिंह की विरासत से जोड़ना उनके साथ अन्याय होगा।
भगतसिंह की विरासत पर बात करने से पहले हम लोगों के लिए यह जान लेना आवश्यक होगा कि वो क्या है, जो भगत सिंह ने चली आ रही परम्परा में कुछ नया जोड़ा।
यदि निष्पक्ष होकर देखा जाए तो ये बात स्पष्टत रूप से कही जा सकती है कि भारतीय परम्परा के मूल में जो विष्वास और आस्था का मूल या भगत सिंह ने उस पर वैचारिक चिंतन और मनन का नया आधार जोड़ा। मार्क्सवादी चिंतनधारा को अपनाने के कारण भगत सिंह को एक सुस्पष्ट वैज्ञानिक आधार मिला जो भारतीय चिंतनधारा में इस रूप में नहीं था।
इसी वैज्ञानिक आधार के कारण भगतसिंह को इस देश में साम्यवाद की आवश्यकता अनुभव हुई, आस्था के स्थान पर अध्ययन, मनन और चिंतन का सूत्र आवश्यक लगा और तर्क की कसौटी पर प्रत्येक विचार, प्रत्येक आस्था को परखने व जांचने की आवश्यकता को महत्त्व दिया। संभवतः इसीलिए भगतसिंह ने स्पष्ट शब्दों में कहा था, ‘‘पिस्तौल और बम कभी इंकलाब नहीं लाते वरन् इंकलाब की तलवार विचारों की सान पर तेज़ होती है।’’
भगतसिंह ने अपने छोटे से जीवनकाल में जिस मार्क्सवादी वैज्ञानिक दृष्टिकोण/विचारधारा को अपनाया, वह उनसे पहले भारतीय परम्परा में दिखाई नहीं पड़ता।
मानव स्वभाव का तर्क संगत विश्लेषण और युवाओं को सही दिशा निर्देश देने की जैसी क्षमता उनके भगतसिंह के पास थी, वह भारतीय परम्परा का समर्थन करने वाले उस समय के किसी भी नेता के पास नहीं थी। कहने की आवष्यकता नहीं कि भगतसिंह की यही तर्कशीलता, उन्हें धर्म का विरोध, परम्परा के प्रति, अन्धी श्रद्धा के विरूद्ध स्पष्ट आवाज़ उठाने के लिए जोश व जुनून पैदा करती है। भारतीय परम्परा में भगतसिंह ने ये जो क्रांति के नए तत्त्व/आधार जोड़े हैं, यही उनकी महत्त्वपूर्ण देन है और इसी से उनकी विरासत का जन्म होता है।
भगतसिंह की विरासत पर दो दृष्टियों से विचार करना आवश्यक होगा। पहले तो दृष्टिकोण को देखा जा सकता ये कि परम्परा में जोड़ी गई नई दृष्टिकोण विचारधारा को आगे बढ़ाने वाले लोगों द्वारा इसे विकिसत व पल्लवित करने के रूप में देखा जा सकता है और दूसरा इस विरासत को समाप्त करने के लिए भाॅंति-भाँति के षड़यन्त्र रचे जाने के रूप में व्याख्यायित किया जा सकता है।
जो भगतसिंह की परम्परा में खड़े हैं वहीं कश्मीर से मणिपुर तक, ईराक से अफगानिस्तान तक और साम्राज्यवाद से रोज़-रोज़ के समाजवाद का संघर्ष कर रहे हैं। उनके जीवन का एक ही असूल है। वह ज़िन्दगी में आराम करना नहीं जानते हैं। जिन्हें आज़ादी के बाद वतन के लिए वक़्फ़ कर दिया गया है, वह न हिन्दू है, न सिक्ख है, न मुसलमान है, न दलित है, वह सिर्फ भगतसिंह तरह आम इंसान है और मानसिक गुलामी का जुआ फेंक कर साझा संस्कृति की लड़ाई का रोज़-रोज़ ऐलान कर रहे हैं। उनमें ही भगतसिंह की तरह प्रतिज्ञा है, व्रत है, संकल्प है।
भगतसिंह उनके लिए न मूर्ति है, न शहीद स्तम्भ, बल्कि इंकलाब का एक सफर है और से सफर अनवरत रूप से आज भी ज़ारी है। यहाॅं मुझे यह कहने में संकोच नहीं कि भगतसिंह की विरासत के आगे ले जाने वाले ये लोग गिनती में बहुत थोड़े हैं, अगर भगतसिंह को सामने रखें तो गिनती का कोई महत्त्व रह ही नहीं जाता।
ये लोग अपनी शक्ति भर प्रयन्न कर रहे हैं कि युवाओं में उस दृष्टिकोण का, विचारधारा का प्रस्फुटन हो जिसे भगतसिंह ने अनिवार्य माना है। मुझे यह कहने में भी संकोच नहीं है कि ऐसे कुछ लोगों के रास्ते में आज अधिक बाधाएँ उपस्थित हैं। विडम्बना ये है कि इन लोगों के मार्ग में ये बाधाएँ ग़ैरों ने नहीं अपनों ने खड़ी की हैं, इन्हीं बाधाओं के कारण भगतसिंह की विचारधारा को विरासत के रूप में अपनाने-आगे बढ़ाने वाले ये लोग हमें दिखाई नहीं पड़ते और ज्यों ही ये दिखाई देने लगते हैं त्यों ही साम्राज्यवादी शक्तियाॅं और प्रतिक्रियावादी लोग इसे समाप्त करने के किसी नए षड्यन्त्र को कार्यरूप देने में निमग्न हो जाते हैं, ऐसे षड्यन्त्रों में भगतसिंह को पगड़ी पहनाकर उसकी एक साम्प्रदायिकक रूप देना, उसके हाथ में पिस्तौल दिखाकर उसे आतंकवादी कहकर पुकारना शामिल है। लोगों के दिमाग में यह बात ठूसी जा रही है कि भगतसिंह इसलिए बहादुर थे कि सिक्ख थे, पर ये बात लोगों को स्वीकार नहीं है।
भगतसिंह की छवि के साथ वो कोई भी साम्प्रदायिक रूप जोड़ने को तैयार नहीं है। जिसके लिए कुछ लोग दिन-रात प्रयत्न में लगे रहते हैं और थोड़े समय के बाद फिर इसे हवा देने लगते हैं। इसी षड्यंत्र का एक हिस्सा है, पिलानी में भगतसिंह की मूर्ति का तोड़ा जाना अभी तक उन दोषियों का कोई पता नहीं और न ही इन दोषियों का समर्थन करने वाली सत्ताधारी सम्राज्यवादी शक्तियों को इसमें रूचि है। वे केवल प्रस्ताव पास करती है और मौन बैठ जाती है।
इसी षड्यन्त्र का एक नया रूप भी देखने में आया है, वास्तव में ये षड्यन्त्र नहीं लगता है मगर है बाॅलीवुड में एक साथ पाॅंच-पाॅंच फिल्में भगतसिंह पर बनाई गई। यह सब भगतसिंह के सपने को पूरा करने के लिए नहीं था, वरन् फिल्म निर्माताओं को लगा कि आज की युवा पीढ़ी के बीच कुछ मसाला लगाकर भगतसिंह की छवि को भी बेचा जा सकता है, बाज़ार सब कुछ बेच सकता है बशर्ते उसे मुनाफा मिले। यह भगतसिंह के साथ बड़ा धोखा है। मुझे यह बताने की आवष्यकता नहीं कि ये बाज़ारवाद इन्हीं साम्प्रदायिक शक्तियों द्वारा समर्थित और चालित है।
ऊपर से देखने पर यह कहा जा सकता है कि आज के युवा वर्ग को साम्प्रदायिक ताकतों द्वारा फैलाए गए जाल के कारण बाज़ारवादी संस्कृति ने पूरी तरह जकड़ लिया है और उन्हें भगतसिंह की विरासत से कोई सरोकार नहीं है वे सुविधाभोगी जीवनदृष्टि के कायल होते जा रहे हैं, लेकिन इस उपरी चकाचैंध के बावजूद भारतीय युवावर्ग कहीं आज भी भगतसिंह से चेतन-अवचेतन रूप से अपने आपको जुड़ा हुआ पाता है। इसका सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि युवाओं में भगतसिंह की तस्वीर/छवि को जानने-समझने की उप्सुकता आज भी बनी गई है।
भगतसिंह के नाम पर विचार मंचों की स्थापना और उनकी रचनाओं का आज भी युवओं के द्वारा पढ़े जाना तथा उनके विरूद्ध रचे गए षङ्यंत्रों का समर्थन करने के स्थान पर एक उपेक्षा भाव दिखाना कुछ ऐसी बाते हैं जो भले ही कुछ लोगों को नगण्य लगे लेकिन मेरी दृष्टि में ये वो चिंगारियां हैं जो किसी भी समय एकत्रित होकर एक प्रज्वलित मषाल का रूप धारण कर सकती है।
अतः भगतसिंह को विरासत पर बात करते हुए यह कहना कि उनकी कोई विरासत नहीं है, उनकी विचारधारा उन्हीं के साथ समाप्त हो गई है, उचित नहीं होगा। ये विरासत सरस्वती नदी की भाॅंति दिखाई भले न दे लेकिन आज भी विद्यमान है और कार्यरत हैं तथा विरासत को अपनाकर चलने वाले युवाओं की भी कोई कमी नहीं है, ये युवा आज ‘कैफ़ी आज़मी’ की ये पंक्तियाॅं गाते हुए आगे बढ़ रहे हैं-
‘हम बचायेंगे, सजायेंगे, सॅंवारेंगे तुझे
रह मिटे नक्ष को चमका के उभारेंगे तुझे
अपनी शहरग का लहू देके निखारेंगे तुझे
दार पे चढ़ के फिर एक बार पुकारेंगे तुझे
राह अगियार की देंखे ये भले तौर नहीं
हम भगतसिंह के साथी हैं, कोई और नहीं।।’
डॉ संगम वर्मा
सहायक प्राध्यापक, हिन्दी विभाग
स्नातकोत्तर राजकीय कन्या महाविद्यालय-सेक्टर42
संपर्क- 094636-03737