कल “डॉटर्स डे” था। सारा दिन सोशल मीडिया पर धूम मची रही। लोगों ने खूब सेलिब्रेट किया, पर मैं सोच रही थी कि एक दिन सेलिब्रेट करके क्या होगा। लोगों का लड़कियों के प्रति व्यवहार और रवैया तो वही रहने वाला है, जो हमेशा रहता है।
एक दिन तो सेलिब्रेट कर लोगे लेकिन क्या अपनी बेटियों को, लड़कियों को लोगों ने आजादी दी है? मैं मानती हूँ कि ऐसा हर जगह नहीं है लेकिन अधिकतर जगह ऐसी ही परिस्थिती देखने को मिलती है।
क्यों एक लड़की को अपने हिसाब से जीने की आजादी नहीं होती? क्यों उसकी मां फैसला लेती है कि वो कितनी चोटी बाँधे, उसका बाप तय करता है कि वो कौन से स्कूल में जाये, समाज तय करता है कि कैसे कपड़े पहने, भाई तय करता है कि किससे बात करे और पूरा परिवार मिलकर तय करता है कि किस लड़के से और कब शादी करनी है।
ऐसा क्यों होता हैं कि एक लड़की को एक नई ज़िन्दगी, एक पूरे परिवार की जिम्मेदारी सम्भालने लायक तो समझ लिया जाता है, लेकिन उसे अपनी ही ज़िन्दगी के फैसले लेने लायक नहीं समझा जाता है..!
वो सबकी पसंद स्वीकारे सबकी मर्जी से रहे तो चरित्रवान और अगर दूसरों की पसंद को नापसंद करके अपनी पसंद बताये तो उसके चरित्र पर संदेह किया जाता है। उनके अपने ही उनके साथ ऐसी नाइंसाफ़ी क्यों करते है? क्यों? आखिर लड़कियों के साथ ही ऐसा क्यों?
घर, परिवार वाले, समाज सबकी इज्ज़त कब उसकी इज्ज़त बन जाती है और उसकी खुद की इज्ज़त कब सबकी गुलाम… खुद उसे भी पता नहीं चलता। मुझे ऐसे लोगों की विचारधारा समझ ही नहीं आती, जो बेटियों को घर की इज्ज़त, घर का मान तो कहते हैं पर खुद ही उनकी इज्ज़त करना, उन्हें मान देना भूल जाते है।
लड़कियां इज्ज़त, स्नेह, ममता, प्यार, भरोसे के खातिर हर उम्र हर रिश्ते में तपती रहती है रिसती रहती है। जिस दिन से जन्म लेती है उसी दिन से उनकी परीक्षायें शुरू हो जाती है। बड़ी विडंबना है…. जिस स्त्री से समाज का वजूद कायम है, लोग उसी को कैद करना चाहते हैं। उसी से उसके अक्स का प्रमाण मांगते रहते हैं।
सोनल ओमर
कानपुर, उत्तर प्रदेश