चलते-चलते: कुलदीप सिंह थिंद

सफ़ेद बालों को देखकर बेफ़िक्र से होने लगे हैं,
अंदर बाहर वक़्त बे वक़्त टहलने से लगे हैं,
गमी खुशी अपना पराया सब एक लगने लगे हैं,
सबकुछ लूट लूटाकर खाली हाथ चलने लगे हैं,
सबकी की हाँ में हाँ और ना में ना कहने लगे हैं,
और दिल जो चाहता है वही करने लगे हैं।।

जूस्त जू थी जिसकी सब क्षितिज होने लगे हैं,
अपनी परछाई को कद से बड़ी सी देखने लगे हैं,
बैठकर अपनों से गिले शिक्वे करने लगे हैं,
चौथी क्लास वाले दोस्त यादों में मुस्कराने लगे हैं,
पुरानी फिल्मों के गीत लुभाने से लगे हैं,
यू टर्न लेकर, अब वापस चलने लगे हैं,
इतिहास के पन्नों में अब सिमटने से लगे हैं।।

आस्माँ धरती छोड़ पाँव अब पानी पर चलने लगे हैं,
रात में उड़ते जुगनु के संग उड़ने लगे हैं,
ऑनलाइन के दौर में भी फिज़ाओं में लिखने लगे हैं,
गहरे समुंदर की टकराती लहरों को बैठकर गिनने लगे हैं,

चन्द्रमा की अमावस और पूर्णिमा में अन्तर करने लगे हैं,
अँधेरे को उजाला, उजाले को अँधेरा करते सूरज को निहारने लगे हैं,
बरसते बादलों की गरज़न और बिजली में खोने लगे हैं,
चकाचौन्ध में इंसानियत को कहीं ढूंढने में लगे हैं,

अपनों को आज़माकर गैरों की ओर कदम बढ़ने से लगे हैं,
आज और तीस साल पहले की सुरत दर्पण में तलासने लगे हैं,
वक़्त की गोद में बैठे ‘थिंद कुलदीप’ स्वयं को जानने में लगे हैं,
ज़िन्दगी आखिर तू ही बता तुम्हें हम क्या लगने लगे हैं?

कुलदीप सिंह थिंद