सजना संवरना मानव का मूल स्वभाव है। ये गुण नैसर्गिक है। प्रकृति प्रदत्त है। अलग-अलग मानव समुदायों के साज-सज्जा के तौर-तरीकों में प्रायः अंतर होता है, पर निखरने-संवरने और आकर्षक दिखने की प्रवृत्ति सभी में अभिन्न है। आकर्षक दिखने के लिए नाना प्रकार के आभूषण, केश-सज्जा, रंग-रोगन का इस्तेमाल सुदूर अतीत से किये जाने की परंपरा रही है।
गोदना भी त्वचा का रंग-रोगन कर उसे आकर्षक बनाने का एक तरीका रहा है। इसे कभी-कभी पछेता या अंकन कह कर भी सम्बोधित किया गया है। आज की तारीख़ में अंग्रेजी में इस्तेमाल किया जाने वाला टैटू शब्द अधिक व्यापक है। इसे पोलिनेशिया के सैमोनन द्वीप समूह में बोली जाने वाली भाषा से लिया गया है। 18वीं शताब्दी में इस शब्द को यथावत बिना किसी परिवर्तन के स्वीकार कर लिया गया। इस शब्द का अर्थ ‘चोट पहुँचना’ है। गोदना चित्रांकन की प्रक्रिया में बार-बार सुई को त्वचा में चुभाए जाने की पीड़ा की यह उचित व्याख्या करता है।
गोदने का इस्तेमाल जनजातियों ने आकर्षण, विकर्षण, शौर्य प्रदर्शन, प्रतिरोध, जनजातीय पहचान आदि अनेक संदर्भों में किया है। अनेक जनजातियाँ इसे कभी न खोने वाले आभूषण की तरह इस्तेमाल करती हैं। कुछ के लिए यह बुरी नज़र से बचाने वाला जंतर है तो कुछ अन्य के लिए विपरीत लिंगी आकर्षण का माध्यम। कुल मिलाकर जनजातीय समाज में गोदने की उपादेयता को किसी एक खांचे के भीतर बाँधा नहीं जा सकता है। विविध रंग-रूप रखने के साथ ही इनकी सुगंध में भी पर्याप्त भिन्नता है।
भारत अनेकानेक जनजातियों का निवास स्थान है। कुल 645 जनजातियां गणना में हैं। जनसंख्या के दृष्टिकोण से मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, ओडिशा, गुजरात, राजस्थान, झारखंड, छत्तीसगढ़, आंध्रप्रदेश, पश्चिम बंगाल और कर्नाटक जनजाति बहुल माने जा सकते हैं। इन राज्यों में कुल जनजातीय जनसंख्या का 83% निवास करता है। इन राज्यों में निवास करने वाली जनजातियों में परिवेशगत अनेकानेक समानताओं के बावजूद सांस्कृतिक स्तर पर अनेक भिन्नताएं भी हैं। इस तथ्य को गोदने से जुड़ी मान्यताओं के संदर्भ में भी देखा जा सकता है।
जनजातीय समाज का गोदना कला के साथ अभिन्न सांस्कृतिक जुड़ाव है। इस कला में शरीर की त्वचा को कैनवास की तरह इस्तेमाल किया जाता है। इस कैनवास पर बनाए जाने वाले मोटिफ्स में खुदपसन्दगी आमतौर पर नहीं होती। उनका निर्धारण सुदूर अतीत में कभी जनजातीय पंचायत द्वारा किया गया होगा। जो लम्बे समय में निरंतरता में बनाए जाने की वजह से परम्परा में ढल गए और जनजातीय अस्मिता के प्रतीक बन गए। मानवशास्त्र के अध्येताओं ने अपने शोध और अध्ययन के दौरान गोदना मोटिफ्स के प्रतीकात्मक महत्व को समझने और उन्हें विश्लेषित करने के अनेक प्रयास किए हैं।
मुंडा नृजातीय समूह से सम्बद्ध संथाल जनजाति झारखंड की बहुसंख्य जनजाति है। झारखंड के अलावा संथाल बिहार, पश्चिम बंगाल, ओडिशा, छत्तीसगढ़, असम और त्रिपुरा में भी पाए जाते हैं। मिदनापुर के सओन्त (Saont) नामक स्थान को इनके मूल स्थान के रूप में चिन्हित किया गया है। सओन्त के नाम पर ही ये संथाली कहलाए। गोदना संथालियों की संस्कृति का अभिन्न हिस्सा है। इस जनजाति में स्त्री और पुरूष के लिए अलग-अलग चिन्ह निर्धारित हैं।
पुरूष आमतौर पर अपनी कलाई पर एक सिक्के जैसा चिह्न अंकित करवाते हैं, जो दिखने में गरम धातु से दागे हुए निशान जैसा दिखता है। समरूपता की वजह से इसे सिक्का या सिका कह कर संबोधित किया जाता है। इनकी संख्या विषम रखी जाती है। ये 1 से 7 के बीच होती है। संथालियों में मान्यता है कि विषम संख्याएं जीवन की प्रतीक होती हैं, जबकि सम संख्याएं मृत्यु की द्योतक हैं।
त्वचा पर सिक्का बनाने के लिए सूती कपड़े या कपास को बीड़ी या सिगरेट का आकार देकर सुलगाया जाता है। जिस जगह गोदना चिह्न अंकित करना हो उसे इस बीड़ी नुमा कपड़े से जलाते हैं। चमड़ी पर जलने के निशान बनने के साथ उसे राख से ढक कर ठंडा करते हैं। त्वचा पर पड़ा हुआ छाला कुछ दिन तकलीफ देकर ठीक हो जाता है और त्वचा पर एक गोल निशान छोड़ जाता है। पुरुषों के हाथ पर दागा गया सिक्का स्त्रियों के गोदने के समकक्ष है। इसे बाएं हाथ पर अंकित किया जाता है।
संथाल स्त्रियों में गोदना चित्रांकन खोदा कहलाता है और इसे बनाने वाली स्त्रियाँ खुदनी कहलाती हैं। तमाम अन्य जनजातियों की तरह संथाली भी गोदने को स्थायी सम्पत्ति की तरह देखते हैं जो मृत्योपरांत भी उनके साथ रहती है। संथालियों में एक किस्सा आम है कि मरने के बाद स्वर्ग में जब कोई स्त्री पानी की तलाश में जाती है तो जल स्रोत के पास उसे एक मेंढकनुमा दरबान मिलता है। कीमत चुकाए बिना वह पानी भरने की अनुमति नहीं देता है। स्त्रियां पानी की कीमत गोदने का कुछ हिस्सा देकर चुकाती हैं। इसी वजह से जिस स्त्री के शरीर पर गोदना चित्रांकन बहुतायत से होता है, उसे धनाढ्य समझा जाता है।
ये किस्सा जीवन में जल के महत्व और गोदने को आभूषण अथवा सम्पत्ति मानने से अभिप्रेरित है। स्त्रियों के लिए गोदना ऐसी सम्पत्ति है जिसे उनसे विलग नहीं किया जा सकता, ऐसी सम्पत्ति जो आड़े वक़्त काम आती है। अपनी इस सम्पत्ति को स्त्रियों ने ससुराल और मायके के बीच विभाजित कर रखा है। दायें हाथ के चित्रांकन को वह मायके का उपहार मानती हैं और बाएं हाथ के चित्रांकन को ससुराल पक्ष से मिलने वाले तोहफे के रूप में कबूल करती हैं। उनके लिये गोदना गौरव, आस्था और जनजातीय अस्मिता का प्रतीक है।
संथाली में खुदा का अर्थ छापा बनाना है। गोदने में जो चिन्ह/छापे शरीर पर अंकित किये जाते हैं उनमें नेक्की खुदा (लकड़ी का कंघा), कदम बहा (कदम का फूल), पान सकम (पान का पत्ता), मिरु खुदा (सूरज), सिम कटा (मुर्गे की टाँग), हर /होर चिन्ह (जनजाति का प्रतीक चिन्ह) प्रमुख हैं। इनके अलावा हाथ और गले पर फूल जैसे छापे अंकित करने का चलन है। गले में छापे नेकलेस की तरह अंकित किये जाते हैं।
हाथ के ऊपरी हिस्से में और अंगूठे के नीचे मछली जैसे चित्रांकन भी बनवाने की परंपरा है। स्त्रियों में छाती पर भी गोदना बनवाने का चलन है। इसे छाती गुदायी कहा गया है। छाती गुदायी किशोरावस्था में प्रवेश के समय अथवा ब्याह के समय करवाई जाती है। शरीर पर सबसे अधिक बनवाये जाने वाले चिन्हों में नेक्की और होर के छापे हैं। संथाली ये भी मानते हैं कि जो व्यक्ति बिना गोदना गुदवाए मर जाता है उसके शरीर को कीड़े खा जाते हैं।
वर्तमान में संथालियों में गोदने की प्रथा में निरंतर गिरावट देखने को मिल रही है। नई पीढ़ी इस प्रथा से लगभग विमुख है। सामाजिक जागरूकता और मुख्यधारा से जुड़ने की चाह इसके मूल में है। राजनीतिक उद्देश्यों से अपनी जनजातीय अस्मिता को भुनाने वालों से इतर ज्यादातर आम लोग बड़े पैमाने पर गोदना करवाने से गुरेज करने लगे हैं। इनमें युवा अधिसंख्य हैं जो आम नागरिक के रूप में पहचाना जाना पंसद कर रहे हैं। समाज के वयस्क और बुजुर्ग भी उनके तरक्की पसंद नजरिए का स्वागत और समर्थन कर रहे हैं।