शुभा मिश्रा
जशपुर, छत्तीसगढ़
ग्यारह, इक्कीस या एक सौ आठ
परिक्रमाएं कर मैं संतुष्ट नहीं होती
पृथ्वी की तरह निरंतर परिक्रमाएं करती रहती हूँ
मेरे मन मंदिर के देव!
तुम ही प्रतिष्ठित हो वहाँ
इच्छाओं का दंश निद्रा निमग्न होने कहाँ देता है
आँसुओं से गीली रात सुलगती रहती है
टकटकी लगी रहती ह भग्न हो कोई तारा
उच्चारित करूँ मनोकामना
ये तारों भरा गगन भी निहारता है अतृप्त सा
मेरी उनींदी पलकों को जो तरसती हैं
एक मीठी सी नींद के लिये
सारी उम्र झूठे अहंकार को ढोती ये जीर्ण देह
कारावास बन जाती है
तृष्णाओं से सनी आत्मा के लिये
कहाँ आसान होता है
श्रवण कर मनन करना कृष्ण उपदेश
यहाँ सबकुछ अप्रत्याशित है
हैरत तो है आहट सुनकर भी मृत्यु की
उपेक्षित कर देना उसके पदचापों को