उम्र चालीस की चौखट लांघ गई तब यकायक जेहन में यह ख्याल कौंधा कि जिंदगी को सही तरीक़े से जिया ही नहीं आज तक। पर कहाँ और किस तरह से कमी रह गई इस जीवन को सार्थकता प्रदान करने में, समझ नहीं पा रही थी। बचपन से युवावस्था का समय जीवन का सर्वोत्तम अनुभव रहा। किसी प्रकार की बंदिशें न थीं। खुले विचारों वाले बाबा के प्रोत्साहन भरे व्यवहार ने हमेशा सही मार्गदर्शन किया। सीधी-साधी माँ की सादगी ने हमेशा ही आडम्बररहित जीवन जीने के लिए प्रेरित किया। विवाह के बाद आयी छोटी-मोटी अड़चनें भी मेरे मनोबल को तोड़ने का दुस्साहस नहीं कर पायीं। समाज सेवा का भूत बचपन से ही सिर पर सवार था। पति बच्चों और मित्रों के सहयोग की वजह से इस क्षेत्र मे भी सक्रियता बनी हुई थी और अभी भी बनी हुई है। समाज सेवा के जुनून मे मैंने कई ईर्ष्यालु शत्रु भी बना लिए। परंतु ईश्वर इन नकारात्मक तत्वों को नाकाम करते आए हैं। सबकुछ अपने मन के मुताबिक ही होता रहा है।
इन सब के बावजूद भी जीवन मे अधूरेपन की कसक थी। कारण जानने का प्रयत्न किया। बहुत सोचा-विचारा पर कुछ हाथ न लगा। फिर शुरू हुई बची हुई जिंदगी को एक नये आयाम तक पहुंचाने की जद्दोजहद। क्या-क्या नहीं आजमाया। अध्यापक बन बच्चों के बीच रहने का बहाना ढूँढा, ताकि उनकी मासूमियत को फिर से महसूस कर सकूं। बड़े बुजुर्गों की छत्र-छाया का आसरा लिया। शेयर बाजार में रातों-रात लाखों कमाने के सपने पाले। पुरानी अधूरी रुचियों को जीवंत किया। लाईब्रेरी में रखी बरसों पुरानी किताबों पर पड़ी गर्द हट गई। आश्रमों के फेरे लगने लगे। पर मन कहीं नहीं टिका। पर प्रत्येक नाटक का किसी न किसी निष्कर्ष के साथ पटाक्षेप होता ही है। कभी आप स्वयं ही समाधान तक पहुंचने मे सफल हो जाते हैं, कभी परिस्थितियाँ समस्या का समाधान कर देती हैं। द्वन्द्व भरी मनःस्थिति से सकारात्मक परिणाम की अपेक्षा करना व्यर्थ है। हमारे भारतीय समाज में स्त्रियां बाह्य तौर पर कितनी भी स्वतंत्र प्रतीत होती हो, मन के अन्दरुनी हिस्से मे अपेक्षाओं की बेड़ियों से जकड़ी होती हैं। अवचेतन मन मे दबी सदियों की संस्कारगत आदतें उन्हें यह सोचने को मजबूर करती हैं कि इन अपेक्षाओं को पूरा करना उनका वंशानुगत कर्त्तव्य है और इन अपेक्षाओं पर खरी न उतरने पर आत्मग्लानि के बोझ तले दब जाती हैं और मैंने इन्हीं बेड़ियों को तोड़ डाला। दूसरों की अपेक्षाओं पर खरा उतरने के लिये अपने ऊसूलों से समक्षौता करना किसी भी कीमत पर स्वीकार्य नहीं होना चाहिए। किसी अन्य के द्वारा निर्मित मर्यादा और सीमा में बंध कर रहना अपने निर्णय लेने की स्वतंत्रता का हनन करना है, स्वतंत्रता किसी भी संबंध की आत्मा होती है।
-सुनीता राय