विवेक रंजन श्रीवास्तव
भोपाल
लोकतंत्र में जनता को सर्वोपरि कहा जाता है। राजनेता सारे कार्य जनता की भलाई के नाम पर ही करते हैं। किंतु सिद्धांतो से परे सचाई यह है कि नेता जी व्यक्तिगत हित तथा महत्वाकांक्षा हेतु ही ज्यादातर निर्णय लेते हैं, जिन्हे शाब्दिक मुलम्मा जनता के हित का चढ़ा दिया जाता है।
व्यक्ति गत दलबदल को कानूनी रूप से रोकने के प्रावधान किए गए तो अब समूह में द्लबदल के खेल होने लगे हैं। मंहगे होटलों में हफ्तों विधायकों को रोक रखा जाना कैसा लोकतंत्र है? इस पर कोई पत्रकार भी आवाज नहीं उठाता, न ही किसने यह खर्च किया इस पर कोई इन्वेस्टिगेशन होता है। इससे लगता है की सब मिली भगत है।
दलबदल के तुरंत बाद मंत्री पद या लाभ के पद दिए जाने पर कानूनी रोक लगाई जानी चाहिए किंतु ऐसा कानून बनाने में किसी राजनैतिक दल की रुचि नहीं है।
सुप्रीम कोर्ट भी संज्ञान क्यों और कैसे ले?
बेबस वोटर तो बस अगले चुनाव तक मूक दर्शक ही बना रह सकता है।
चुनाव से एक साल पहले से चुनावी माहौल बनाना हास्यास्पद है, क्या आखिरी साल में नियमित सरकारी काम नहीं होने चाहिए! चुनाव प्रचार अवधि में जो कुछ होना चाहिए वैसा सब साल भर पहले से सरकारें कर रही हैं।
दल बदल की कोशिशें भी उसी अभियान के हिस्से हैं। यह लोकतंत्र की विडंबना ही है।