बहुत कम लोगों को यह जानकारी होगी कि मशहूर पर्दें के खलनायक और चरित्र अभिनेता याकूब जबलपुर के थे। उनके पिता पठान मेहबूब खान जबलपुर में लकड़ी के ठेकेदार थे। याकूब का जन्म जबलपुर में 3 अप्रैल 1903 को हुआ। पठान मेहबूब खान चाहते थे कि याकूब उनके नक्शेकदम पर चले। याकूब न तो लकड़ी चीरना चाहते थे और न ही मोटर मैकेनिक। उन्हें एक्टिंग पसंद थी लेकिन सिर्फ शौक के तौर पर। महज 9 साल की उम्र में एक दिन याकूब जबलपुर छोड़ कर लखनऊ भाग गए। वहां वे एलेक्जेंड्रा थियेट्रिकल कंपनी में शामिल हो गए। दो साल तक वहां काम किया। फिर याकूब 1921 में बंबई चले गए। वहां उन्होंने मैकेनिकल ट्रेनिंग ली। एसएस मदुरा स्टीमर में वे नेवी बॉय के रूप में काम करने लगे। इस नौकरी के कारण उन्हें लंदन, पेरिस, ब्रुसेल्स आदि विदेशी शहरों को घूमने का मौका मिला। 1922 में वे भारत लौट आए और टूरिस्ट गाइड के रूप में कलकत्ता में अमेरिकन एक्सप्रेस कंपनी में शामिल हो गए। 1924 में याकूब वापस बंबई आए और एक अन्य थिएटर कंपनी में प्रॉपर्टी मास्टर के रूप में नौकरी करने लगे। मंच के परिचित उत्साह ने उनके भीतर के अभिनेता को जगाया और शारदा फिल्म कंपनी में शामिल हो गए। यहां उन्होंने 50 मूक फिल्में बनाईं।
याकूब को पहला ब्रेक शारदा फिल्म कंपनी की मूक फिल्म बाजीराव मस्तानी (1925) में मिला। इस ऐतिहासिक फिल्म का निर्देशन भालजी पेंढारकर ने किया था। गुलज़ार (1927), कमला कुमारी (1928) और सरोवर की सुंदरी (1928) जैसी फिल्मों में अभिनय करने के बाद, याकूब को विक्टोरिया फातिमा फिल्म कंपनी की चंद्रावली (1928), मिलन दिनार (1929) और शकुंतला (1929) में विभिन्न भूमिकाएँ मिलीं। इनमें से ज्यादातर फिल्मों में याकूब खलनायक की भूमिका में नजर आए। प्रेशियस पिक्चर्स की ‘महासुंदर’ (1929) पूरी करने के बाद वह सागर मूवीटोन से जुड़ गए। वहां उन्होंने अरुणोदय (1930), दांव पेंच (1930), नई रोशनी (1930), मीठी छुरी (1931) और तूफानी तरूणी (1931) जैसी फिल्मों में काम किया। ये सभी मूक फ़िल्में थीं। उनकी पहली बोलती (टॉकी) फ़िल्म थी ‘मेरी जान’ (1931)। इस फिल्म में याकूब ने राजकुमार की मुख्य भूमिका निभाई थी। राजकुमार की भूमिका उन्होंने इतने प्रभावी ढंग से की इस कि सारी इंडस्ट्री ने उन्हें ‘रोमांटिक प्रिंस’ के ख़िताब नवाज़ा जो उनके लिए एक बड़ी उपलब्धि थी। तीस के दशक में याकूब ने गुजराती फिल्मों बे खराब जान, सागर का शेर और उसकी तमन्ना में के निर्देशन के साथ 34 फिल्मों में काम किया। याद रखें याकूब ने जद्दनबाई के साथ फिल्म तलाश-ए-हक में भी नज़र आए। इस फिल्म का उन्होंने निर्देशन भी किया।
तीन फिल्मों में एक साथ काम करने से याकूब व महबूब खान के बीच अच्छी दोस्ती हो गई। जब महबूब खान ने अपनी पहली फिल्म अल-हिलाल/जजमेंट ऑफ अल्लाह का निर्देशन किया तो उन्होंने याकूब को एक भूमिका में लिया। 1940 में महबूब खान की ‘औरत’ फिल्म में याकूब ने सरदार अख्तर के शरारती व गुमराह बेटे बिरजू की भूमिका निभाई। याकूब ने बेहतरीन अभिनय किया और बिरजू के किरदार को बखूबी निभाया। इसके बाद तो याकूब ने महबूब खान निर्देशित अधिकांश फिल्मों में अभिनय किया। याकूब ने 1930 में खुर्शीद बानो से शादी की । खुर्शीद बानो भी इंपीरियल फिल्म कंपनी में एक अभिनेत्री थी।
याकूब व कॉमेडियन गोप की स्क्रीन जोड़ी खूब प्रसिद्ध हुई। उस समय इस जोड़ी को इंडियन लॉरेल-हार्डी का खिताब मिला। इस जोड़ी ने कई फिल्मों में अभिनय कर के ख्याति अर्जित की। इस जोड़ी के फिल्मों में बोले गए तकिया कलाम ने दर्शकों को हंसाया। उनके तकिया कलाम ‘रहे नाम अल्लाह का’, ’मानता हूं सुलेमान हू’, ‘खुश रहो प्यारे’ लोग आम जीवन में भी बोलने लगे थे। 1949 में याकूब ने ‘आइये’ फिल्म का निर्माण व निर्देशन किया लेकिन दुर्भाग्य से यह फिल्म बॉक्स आफिस पर चली नहीं। याकूब के चचेरे भाई अलाउद्दीन इस फ़िल्म के रिकॉर्डिस्ट थे। ये वही रिकॉर्डिस्ट थे जो आगे चलकर राज कपूर की फिल्मों के नामचीन रिकॉर्डिस्ट हुए। पचास के दशक में उन्होंने 28 फिल्मों में अभिनय किया। जिसमें दीदार, हलचल, हंगामा, वारिस, अब दिल्ली दूर नहीं, पेइंग गेस्ट और अदालत जैसी लोकप्रिय फिलमें थीं। याकूब ने 34 साल के कैरियर में 130 से ज्यादा फिल्मों में यादगार किरदार निभाए। याकूब उस समय पृथ्वीराज कपूर व चंद्रमोहन से भी ज्यादा वेतन पाने वाले कलाकार रहे। कहा जाता है कि महमूद जब एक संघर्षशील कलाकार थे, तो वो अक़्सर याक़ूब के आने की प्रतीक्षा में बॉम्बे टॉकीज के पास घूमते रहते थे। इसका कारण था उनकी जर्जर आर्थिक स्थिति थी। गेट पर खड़े महमूद को याकूब कुछ राशि ज़रूर देते थे। 1958 में मात्र 54 वर्ष की उम्र में याकूब का निधन हो गया। जबलपुर की इस गुमनाम हस्ती की आज 24 अगस्त को 65 वीं पुण्यतिथि है। याकूब को सलाम।