5 जून विश्व पर्यावरण दिवस पर फिर से एक बार प्रभावशाली स्लोगन जोर-जोर से चिल्लायेगे, पेड़ों के संरक्षण के भाषण, बूँद-बूँद पानी की कीमत पहचानिये और भी न जाने क्या-क्या लिखेगे और बोलेगे। पर सच तो यही है अपनी सुविधानुसार जीवन जीने की लालसा में हम अपने हाथों से विकास की कुल्हाड़ी लिये प्रकृति की जड़ों को काट रहे हैं। आधुनिकता की होड़ ने हमें दम घोंटू हवाओं में जीने को मजबूर कर दिया है और इन सबके जिम्मेदार सिर्फ़ और सिर्फ़ हमारी असंतुलित, अव्यवस्थित आरामदायक जीवन शैली है। हरे वृक्षों को काटकर, खेतों के ऊपजाऊ सीने पर फैक्ट्री लगाकर, पहाड़ को फोड़कर समतल करके, तालाब सुखाकर, कंक्रीट के जंगल उगाते गमलों में कुछ पौधे बोकर हम भला पर्यावरण संरक्षण में क्या योगदान कर रहे हैं।
पीने के पानी की भयावह स्थिति के बढ़ते आँकड़े माथे की लकीर गहरी करने के लिए पर्याप्त नहीं?
हमने क्या सार्थक किया है प्राकृतिक धरोहर को बचाने की मुहिम में? बेमतलब टपकते नल को महत्वहीन बात समझकर नज़र अंदाज़ कर देते हैं, पानी के गिलास भरकर होंठ गीला कर बचा कीमती पानी यूँ ही बेसिन में जूठा है, कहकर बहा देते हैं।
लक्ज़री गाड़ी धोने के लिए बेशकीमती पानी निर्दयता से बहाते हैं। ऐसा तो नहीं न कि बारिश नहीं होती है, हर साल बारिश तो हो ही रही है पर भू-गर्भीय जल-स्तर की स्थिति बिगड़ती जा रही है, अब कंक्रीट के जंगल पानी तो सोख नहीं सकते हैं और मिट्टी बची कहाँ है पानी पीने के लिए और न पेड़ बचे हैं बची मिट्टियों को पकडे रखने के लिए ज़रा सी बारिश हुई नहीं कि जगह-जगह जलजमाव शुरु हो जाता है नालियाँ ऐसी हैं कि उनका इस्तेमाल कचरा संरक्षण के लिए होता है, अब बारिश का सारा पानी बहकर तबाही फैलाता हुआ समुंदर में मिलकर विलीन हो जाता है।
बिना गाड़ी के आधा किलोमीटर की दूरी तय करना मुश्किल है। सड़कों पर आदमी से ज्यादा गाड़ियों की भीड़ धुँओं से उत्पन्न प्रदूषण से अनगिनत बीमारियों का शिकार होते हम बस भाषण देकर, व्यवस्था की खामियाँ गिनाकार,दोषारोपण करके अपनी जिम्मेदारी की इतिश्री कर लेते हैं।
प्रकृति की ऐसी दुर्दशा देख कर बस यही सवाल खुद से पूछती हूँ कि आने वाली पीढ़ियों के लिए हम ये कैसी धरोहर संजो रहे हैं? पर्यावरण असंतुलन से होने वाली गंभीर और चिंताजनक समस्याओं का प्रभाव हम सब पर समान रुप से पड़ रहा है कृपया अपनी जिम्मेदारियों को समझें।
-श्वेता सिन्हा