एक अजन्मी कथा- प्रशांत सेठ

अंतराष्ट्रीय महिला दिवस पर…

मधुर प्रेम के किसी क्षण में
नेह व्याप्त था कण कण में
प्रकृति ने तब श्रृंगार किया
ईश्वर ने अंगीकार किया

संकल्प शिव का परस्पर था
जननी होने का अवसर था
समर्पण का तुमने विचार किया
दायित्व सृजन का स्वीकार किया

जगत धारिणी धरती के जैसे
देखें सृजन तुम करती हो कैसे
इसलिये विधाता छुप गया ओट में
मुझे सौंप कर तेरी गोद में

माँ की कोख में क्या भय होना था
नव जीवन का अब उदय होना था
आतुरता थी श्वांस श्वांस में
निर्भयता थी मेरे विश्वास में

और फिर मैंने आकार लिया
नारीत्व को स्वीकार किया
तेरे जैसी बनना चाहती थी
सृष्टि मैं भी रचना चाहती थी

तेरा पोषण, तेरा संयम था
मिट रहा अब अधूरापन था
सिर्फ उमंग थी और उत्साह था
वर्तमान, भविष्य से बेपरवाह था

लेकिन…

सरल नहीं है स्त्री का जन्म पाना
हर निश्चय का मंज़िल तक जाना
स्वप्न आँख का तरल हो गया
खुशियों का अमृत गरल हो गया

दूषित तुम्हारा मन क्लेश से
हुआ मेरे आगमन सन्देश से
सन्नाटे में डूबी किलकारी
फूल खो गया, रह गई क्यारी

प्रश्न है इस अजन्मी बेटी का
मैं ही पात्र क्यों हूँ बलिवेदी का?
क्या है फर्क मुझमें और उसमें?
क्या प्रारब्ध है किसी के बस में?

ये जो कुछ मैं सहे जाती हूँ
बस इतना ही मैं कहे जाती हूँ
फिर कोई कली असमय ना टूटे
फिर कोई अजन्मी कथा ना छूटे

भेद है केवल तुम्हारी दृष्टि का
नियम अदभुत है वरना सृष्टि का
दोनों में ईश्वरीय अभिव्यक्ति है
पुरुष संकल्प है, स्त्री शक्ति है

-प्रशांत सेठ