कसम से- आज भोरे-भोरे नींद खुली तो मुंह धोते ही चाय की ज़बर्दस्त तलब हुई। एक जोरदार अंगड़ाई लेते हुए थोड़े रुआब से अपनी श्रीमती जी से चाय क्या मांग ली, मानो मुसीबत ही मोल ली। छुटते ही उसने मुझे यूँ घूर कर देखा जैसे मैं अजायबघर में रखा कोई सदियों पुरानी सामग्री हूँ।
सहमते हुए पत्नि की ओर देखा यह सोचकर कि अचानक यूँ तरेरती निगाहों से घूरने का क्या मतलब है, पूछ ही लूँ पर इससे पहले ही उसने आक्रमक तरीके से हिकारत भरी नज़रों से देखते हुए कहना शुरू कर दिया-
-किसी काम-काज के तो हो नहीं और ऊपर से फरमाइशों का टोकरा लिए फिरते हो
मैंने डरते-डरते पूछ लिया- श्रीमती जी, बात क्या है, आखिर बताओ तो
अब तो जैसे मैंने रही-सही कसर पूरी कर दी हो। सवाल खत्म होने के पहले ही वो तपाक से बोल उठी- एक तुम हो जब देखो किसी धाँसू लिखाड़ की तरह लिखने बैठ जाते हो किन्तु ये अब तक नहीं हुआ कि कहीं से एक-आध कोई पुरस्कार-सम्मान ही जुगाड़ लाते।
अचरज भरी निगाहों से श्रीमती जी को देखा, साक्षात रौद्र रूप देखकर हालांकि मेरा दिल धाड़-धाड़ कर रहा था बाबजूद हिम्मत करके मैंने कहा- श्रीमती जी, सृजन साधना है, साहित्य की सेवा कर रहा हूँ मैं, पुरस्कार की सोचकर सृजन नहीं करता
भाड़ में जाए तुम्हारा सृजन और साधना, बिफरते हुए उसने कहा तो जैसे साँप सूंघ गया मुझे बावजूद किसी आज्ञाकारी बालक की तरह सर झुकाए उसकी बातों को सुनता रहा क्योंकि पता था कि अगर मेरे मुंह से कोई प्रतिवादी शब्द गलती से निकल गया तो मेरी खैर नहीं। इधर श्रीमती जी फुफकारते हुए कहना चालू रखा था-
एक-आध पुरस्कार-सम्मान तक के लिए किसी ने अबतक पूछा नहीं और लगे सुबह-सुबह भाषण देने, श्रीमती जी की ऊँची होती आवाज़ से मेरा दिल बैठने लगा था, समझ नहीं पा रहा था कि क्या जबाब दूँ। इससे पहले कुछ और कहता उसने दुबारे से कहना शुरू किया- रोज़-रोज़ टी वी पर साहित्यकारों के द्वारा पुरस्कार-सम्मान लौटाने की खबरें देखती हूँ, साहित्यकारों के पुरस्कार और सम्मान लौटाने की चर्चा विश्व स्तर पर हो रही है और तुम हो कि आजतक यूँ ही बैठे-बिठाए खुद का समय नष्ट करते ही हो, मेरा भी समय इन उल-जलूल बातों में खराब करते हो। श्रीमती जी के गुस्से का अभिप्राय समंझ में आ गया था। मन ही मन मैं भी खुद से कुढ़ने लगा था कि अगर गलती से कोई पुरस्कार मुझे भी मिल गया होता तो श्रीमती जी के अरमान तो पूरे कर सकता था, पर हाय रे मेरी किस्मत… कहीं से पुरस्कार जुगाड़ नहीं पाया था तभी तो कोपभाजन का शिकार बन गया था मैं।
समाचार पत्रों और टेलीविज़न पर देश के बड़े-बड़े ख्यातिनाम लेखकों-कवियों के पुरस्कार लौटाए जाने से मची घमासान को देखकर ही वे आज इतने भावुक हो चली थी। बातों के निहितार्थ से अनजान श्रीमती जी को देखा था मैंने- अब भी चेहरे पर आक्रोश के भाव परिलक्षित हो रहे थे। मैंने श्रीमती जी को समझाने के लिहाज़ से कहा- श्रीमती जी, साहित्य-साधना का मूल्यांकन समय करता है और रही बात पुरस्कार-सम्मान की बात तो यह भविष्य पर निर्भर करता है की मैं उस योग्य हूँ भी या नहीं। अगर योग्य हुआ तो पुरस्कार-सम्मान स्वयं चलकर आएगा पास। मेरे इतना कहते ही श्रीमती जी लगभग दहाड़ उठी- रहने दो तुमसे कुछ नहीं होगा, क्योंकि तुम किसी काम के नहीं हो।
एक वे लोग हैं जो सम्मान और पुरस्कार वापस लौटा रहे हैं और एक तुम हो जो आजतक एक पुरस्कार तक नहीं ला पाये कहीं से। कहते-कहते रुआंसी सी सूरत हो चली थी उसकी-उसने आगे कहना जारी रखा, अगर कोई छोटा-मोटा पुरस्कार ही मिल गया होता तुम्हें तो कितने शान से आज सरकार के विरोध के नाम पर उसे वापस करते, देश-दुनिया की निगाहें तुमपर होती तब मुझे भी कितना अच्छा लगता, बोलते-बोलते दीर्घ श्वांस छोड़ी थी उसने। समझाने वाले अंदाज़ में मैंने कहा- श्रीमती जी, जैसे नदी का जलधार वापस लौट कर अपने उद्गम स्थल की ओर नहीं आता ठीक वैसे ही तब प्राप्त पुरस्कार और सम्मान का वर्तमान कारणों के आधार पर वापस किया जाना संवेदना का मामला कम राजनितिक ज्यादा है। तुम ही सोचो, जिस समय पुरस्कार और सम्मान मिला होगा तब जो परिस्थियाँ होगी क्या उसे भी वापस किया जा सकता है? सृजन और साहित्य काल और सीमा से परे होते हैं। इन्हें कैसे अपने हितार्थ उपयोग किया जा सकता है।
बात अभी पूरी भी नहीं हुई थी कि श्रीमती जी ने रोकते हुए मुझे हिदायत करते हुए कहा- अपना ज्ञान खुद के पास रखो, मुझे कुछ नहीं सुनना, कहे दे रही हूँ अगर तुमने जल्द ही कोई पुरस्कार-सम्मान जुगाड़ नहीं किये तो तुम्हारा लिखना बन्द और तुम्हारी लिखी पांडुलिपियां चूल्हे के हवाले कर दूंगी।
श्रीमती जी का यह भीषण रूप देखकर मेरा छोटा-सा दिल बैठा जा रहा है। समझ में नहीं आ रहा है कि पुरस्कार कैसे जुगाडूँ? तभी अंतर्मन से आवाज़ उठी, चिंता मत कर, तुम्हारे। इतने सारे मित्र हैं, उनसे अपनी बात बता, कोई ना कोई तुम्हारी मदद जरूर करेंगे। सच कहता हूँ जो भी पुरस्कार और सम्मान मुझे देंगे उन्हें फिर वापस लौटा ही दूंगा। आशा की किरण दिखते ही मैं एकबार फिर से जोश से भर उठा और थोड़ी तेज़ आवाज़ निकालते हुए श्रीमती जी चाय लाने को कहा- श्रीमती जी भी शायद अब यह मान चुकी थी कि आज के बाद मैं भी उसकी बातों पर अमल करना शुरू कर दूंगा और कोई बड़ा नहीं तो छोटा-मोटा पुरस्कार हथिया ही लूंगा। सोच ही रहा था यह सब कि श्रीमती जी गर्म-गर्म चाय ले आई और मैं चाय की चुस्कियों के साथ अपनी रणनीति बनाने में जुट गया।
-चंद्र विजय प्रसाद चन्दन
देवघर, झारखण्ड