मन का घना वन,
जिसके कई अंधेरे कोने से
मैं भी अपरिचित हूँ,
बहुत डर लगता है
तन्हाईयों के गहरे दलदल से,
जो खींच ले जाना चाहते है
अदृश्य संसार में,
समझ नहीं पाती कैसे मुक्त होऊँ
अचानक आ लिपटने वाली
यादों की कटीली बेलों से,
बर्बर, निर्दयी निराश जानवरों से
बचना चाहती हूँ मैं,
जो मन के सुंदर पक्षियों को
निगल लेता है बेदर्दी से,
थक गयी हूँ भटकते हुये
इस अंधेरे जंगल से,
भागी फिर हूँ तलाश में
रोशनी के जो राह दिखायेगा
फिर पा सकूँगी मेरे सुकून
से भरा विस्तृत आसमां,
अपने मनमुताबिक उड़ सकूँगी,
सपनीले चाँद सितारों से
धागा लेकर,
बुनूँगी रेशमी ख्वाब और
महकते फूलों के बाग में
ख्वाहिशों के हिंडोले में बैठ
पा सकूँगी वो गुलाब,
जो मेरे जीवन के दमघोंटू वन को,
बेचैनियों छटपटाहटों को,
खुशबूओं से भर दे।
-श्वेता सिन्हा