रोज निकलता हूँ जिंदगी को मिट्टी से मिलाने में
खुशियां छोड़ अपनी सबकी तलासने में
लौट आता हूँ तमस की बांह खुलने पर
पसीने में तर बतर सूखे होंठ लेकर
रस्ते में पैर नहीं उठते है मेरे अब
कि दरवाजे पर अब मेरी माँ नहीं होती
चुप हो जाता हूँ अब मैं
अपने दर्द की सिसकियों में
करवट भी नहीं बदलता मैं
तकलीफों के सिलवटों में भी
अब जोर से चीख़ता भी नहीं हूँ
कि अब चोट पर मेरी माँ नहीं रोती।
सजता हूँ रोज दुनिया को दिखाने
काम से सबका काम निबाहने
हो जाती है उल्टियां हमे भी
कभी-कभी थकान से
नजरें उतारने को चूल्हे पर माँ नहीं होती
-मनोज कुमार