गणेश उत्सव: सोनल मंजू श्री ओमर

सोनल मंजू श्री ओमर
कानपुर, उत्तर प्रदेश

पौराणिक काल में एक बार महर्षि वेदव्यास ने महाभारत की रचना के लिए गणेशजी का आह्नान किया और उनसे महाभारत को लिपिबद्ध करने की प्रार्थना की। गणेश जी ने कहा कि मैं जब लिखना प्रारंभ करूंगा तो कलम को रोकूंगा नहीं, यदि कलम रुक गई तो लिखना बंद कर दूंगा। तब व्यास जी ने कहा प्रभु आप विद्वानों में अग्रणी हैं और मैं एक साधारण ऋषि किसी श्लोक में त्रुटि हो सकती है, अतः आप समझकर और त्रुटि हो तो निवारण करके ही श्लोक को लिपिबद्ध करना। आज के दिन से ही व्यास जी ने श्लोक बोलना और गणेशजी ने महाभारत को लिपिबद्ध करना प्रारंभ किया।

उसके 10 दिन के पश्‍चात अनंत चतुर्दशी को लेखन कार्य समाप्त हुआ। इन 10 दिनों में गणेशजी एक ही आसन पर बैठकर महाभारत को लिपिबद्ध करते रहे, इस कारण 10 दिनों में उनका शरीर जड़वत हो गया और शरीर पर धूल, मिट्टी की परत जमा हो गई। तब 10 दिन बाद गणेशजी ने सरस्वती नदी में स्नान कर अपने शरीर पर जमीं धूल और मिट्टी को साफ किया।

जिस दिन गणेशजी ने लिखना आरंभ किया उस दिन भाद्रमास के शुक्‍ल पक्ष की चतुर्थी तिथि थी। इसी उपलक्ष्‍य में हर साल इसी तिथि को गणेशजी की प्रतिमा को स्थापित किया जाता है और दस दिन मन, वचन कर्म और भक्ति भाव से उनकी उपासना करके अनन्त चतुर्दशी पर विसर्जित कर दिया जाता है।

गणेश उत्सव का आरंभ छत्रपति शिवाजी जी महाराज ने किया था, लेकिन इसे हर घर, जनमानस तक पहुँचाने का कार्य लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने किया। 1893 में लोकमान्य ने मुंबई के गिरगांव में गणपति का पहला मंडल बनाया, जिसका नाम केसवी नाइक चॉल गणेश उत्सव मंडल था। लोकमान्य तिलक ने ही पहली बार मिट्टी की बनी हुई गणेश प्रतिमा को 10 दिनों के सार्वजनिक पूजन के लिए स्थापित किया। आज लगभग हर राज्य, हर शहर, हर गली-मोहल्ले, हर घर में गणपति विराजे जाते है, गणपति महोत्सव की धूम रहती है।

इसका आध्यात्मिक महत्व है कि हम दस दिन संयम से जीवन व्यतीत करें और दस दिन पश्चात अपने मन और आत्मा पर जमी हुई वासनाओं की धूल और मिट्टी को प्रतिमा के साथ ही विसर्जित कर एक परिष्कृत और निर्मल मन और आत्मा के रूप को प्राप्त करें।