साधु संत के तुम रखवारे।
असुर निकन्दन राम दुलारे॥
अष्ट सिद्धि नौ निधि के दाता।
अस बर दीन जानकी माता॥
अर्थ
आप साधु संतों के रखवाले, असुरों का संहार करने वाले और प्रभु श्रीराम के अत्यंत प्रिय हैं। आप आठों प्रकार के सिद्धियों और नौ निधियों के प्रदाता हैं। आठों सिद्धियां और नौ निधियों को किसी को भी प्रदान कर देने का वरदान आपको जानकी माता ने दिया है।
भावार्थ
श्री हनुमान जी राक्षसों को समाप्त करने वाले हैं। श्री रामचंद्र जी के अत्यंत प्रिय है। साधु संत और सज्जन पुरुषों कि वे रक्षा करते हैं। श्री रामचंद्र जी के इतने प्रिय हैं कि अगर आपको उनसे कोई बात मनमानी हो तो आप श्रीहनुमानजी को माध्यम बना सकते हैं। माता जानकी ने श्री हनुमान जी को अष्ट सिद्धियों और नौ निधियों का वरदान दिया हुआ है। इस वरदान के कारण वे किसी को भी अष्ट सिद्धियां और नौ निधियां प्रदान कर सकते हैं।
संदेश
अपनी शक्तियों का सही इस्तेमाल करें और उन्हें उन्हीं को सौंपे, जो इसके असली हकदार हों।
इन चौपाइयों का बार बार पाठ करने से होने वाला लाभ-
1-साधु सन्त के तुम रखवारे। असुर निकन्दन राम दुलारे॥
2-अष्ट सिद्धि नौ निधि के दाता। अस बर दीन जानकी माता॥
हनुमान चालीसा की इन चौपाईयों के बार बार पाठ करने से दुष्टों का नाश होता है, आपकी रक्षा होती है और आपके सभी इच्छाएं पूर्ण होती हैं ।
विवेचना
पहली चौपाई में हनुमान जी के लिए कहा गया है कि वे साधु और संतों के रखवाले हैं। असुरों के संहारक हैं और रामचंद्र जी के दुलारे हैं। इस चौपाई को पढ़ने से कई प्रश्न मस्तिष्क में आते हैं। पहला प्रश्न है कि साधु कौन है और कौन संत है। इसके अलावा असुर किसको कहेंगे इस पर भी विचार करना होगा। साधु, संस्कृत शब्द है जिसका सामान्य अर्थ ‘सज्जन व्यक्ति’ से है। लघुसिद्धान्तकौमुदी में कहा है-
‘साध्नोति परकार्यमिति साधुः’ (जो दूसरे का कार्य कर देता है, वह साधु है।)
वर्तमान समय में साधु उनको कहते हैं जो सन्यास दीक्षा लेकर गेरुए वस्त्र धारण करते है। आज के युग में सामान्यतः भिक्षाटन के ध्येय से लोग अपना सर मुंडवा कर गेरुआ वस्त्र पहन कर के साधु सन्यासी बन जाते हैं। यह चौपाई ऐसे साधुओं के लिए नहीं है। वर्तमान में नकली और ढोंगी साधुओं व बाबाओं ने वातावरण को इतना प्रदूषित कर रखा है कि लोग सच्चे साधुओं व बाबाओं पर भी शंका करते हैं। इसका कारण यह है कि यह पहचानना बहुत मुश्किल हो गया है कि कौन सच्चा साधु है और कौन ढोंगी साधु है।
एक विद्वान ने सच्चे साधुओं की ऐसी पहचान बताई है, जिसके द्वारा हम नकली और असली साधु या बाबा में सरलता से भेद कर सकते हैं। इस विद्वान के अनुसार सच्चा साधु तीन बातों से हमेशा दूर रहता है- नमस्कार, चमत्कार और दमस्कार। इनके अर्थ जरा विस्तार से बताना आवश्यक है। नमस्कार का अर्थ है सच्चा साधु इस बात का इच्छुक नहीं होता है कि कोई उसे प्रणाम करें। वह भी अपने से श्रेष्ठ साथियों को ही केवल नमन करता है किसी और को नहीं।
‘चमत्कार’ से दूर रहने का अर्थ है कि सच्चा साधु कभी कोई चमत्कार नहीं दिखाता है। वह जादू टोने के कार्यों से दूर रहता है। जादू टोने का कार्य करने वाले कोई जादूगर आदि हो सकते हैं, सच्चे साधु सन्यासी नहीं। ढोंगी साधु और सन्यासी हमेशा चमत्कार करने की कोशिश करते हैं जिससे जनता उनसे प्रभावित रहे। उनको निरंतर द्रव्य प्रदान करती रहे।
इसी तरह ‘दमस्कार’ से दूर रहने का अर्थ है कि सच्चा साधु कभी अपने लिए धन एकत्र नहीं करता और न किसी से धन की याचना करता है। वह केवल अपनी आवश्यकता की न्यूनतम वस्तुएं मांग सकता है, कोई संग्रह नहीं करता। आजकल के अधिकतर बाबाओं के पास बड़ी-बड़ी संपत्तियां हैं।
कुछ लोग विशेष साधना करने वाले व्यक्ति को साधु कहते हैं। यह भी कहते हैं ऐसे व्यक्तियों के ज्ञानवान या विद्वान होने की आवश्यकता नहीं है। परंतु यह परिभाषा मेरे विचार से सही नहीं है। साधु को ज्ञानवान होना आवश्यक है। उसे विद्वान होना ही चाहिए। आप समाज में रहकर भी अगर कोई विशिष्ट ज्ञान प्राप्त करते हैं या कोई विशेष साधना करते हैं और जप तप नियम संयम का ध्यान रखते हैं तो आप साधु हो सकते हैं।
कई बार अच्छे और बुरे व्यक्ति में फर्क करने के लिए भी साधु शब्द का प्रयोग किया जाता है। इसका कारण यह है कि साधना से व्यक्ति सीधा, सरल और सकारात्मक सोच रखने वाला हो जाता है। साथ ही वह लोगों की मदद करने के लिए हमेशा आगे रहता है।
आईये अब हम साधु शब्द की शब्दकोश के अर्थ की बात करते हैं। साधु का संस्कृत में अर्थ है सज्जन व्यक्ति। इसका एक उत्तम अर्थ यह भी है 6 विकार यानी काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मत्सर का त्याग कर देता है। जो इन सबका त्याग कर देता है, उसे ही साधु की उपाधि दी जाती है। साधु वह है जिसकी सोच सरल और सकारात्मक रहे और जो काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि का त्याग कर दे।
आइए अब हम संत शब्द पर चर्चा करते हैं। इस शब्द का अर्थ है सत्य का आचरण करने वाला व्यक्ति। प्राचीन समय में कई सत्यवादी और आत्मज्ञानी लोग संत हुए हैं। सामान्यत: ‘संत’ शब्द का प्रयोग बुद्धिमान, पवित्रात्मा, सज्जन, परोपकारी, सदाचारी आदि के लिए किया जाता है। कभी-कभी साधारण बालेचाल में इसे भक्त, साधु या महात्मा जैसे शब्दों का भी पर्याय समझ लिया जाता है। शांत प्रकृति वाले व्यक्तियों को संत कह दिया जाता है। संत उस व्यक्ति को कहते हैं, जो सत्य का आचरण करता है और आत्मज्ञानी होता है। जैसे- संत कबीरदास, संत तुलसीदास, संत रविदास। ईश्वर के भक्त या धार्मिक पुरुष को भी संत कहते हैं।
मेरे विचार से प्रस्तुत चौपाई में साधु और संत शब्द का उपयोग उन व्यक्तियों के लिए किया गया है जो सत्य का आचरण करते है सत्य निष्ठा का पालन करते है किसी को दुख नहीं देते हैं।उनसे किसी को तकलीफ नहीं होती है। वह लोगों के दुख दूर करने का प्रयास करते हैं तथा जिसकी सोच सरल और सकारात्मक होती है। जो काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि का त्याग कर दे वह संत है।
इस चौपाई में तुलसीदास जी कहते हैं कि श्री हनुमान जी ऐसे उत्तम पुरुषों के रक्षक हैं। उनको कोई कष्ट नहीं होने देते हैं। उनके हर दुखों को दूर करते हैं। यह दुख दैहिक दैविक या भौतिक किसी भी प्रकार का हो सकता है। संत और साधु पुरुषों को अपना काम करना चाहिए। उनकी तकलीफों को दूर करने का कार्य तो हनुमान जी कर ही रहे हैं। एक प्रकार से ऐसे पुरुषों के माध्यम से हनुमान जी यह चाहते हैं कि जगत का कल्याण हो। जगत के लोग सही रास्ते पर चलें और किसी को किसी प्रकार की तकलीफ ना रहे।
यह चौपाई बहुत लोगों को सन्मार्ग पर लाने का एक साधन भी है। इसके कारण बहुत सारे दुष्ट लोग भी संत बनने की तरफ प्रेरित हो सकते हैं। श्री हनुमान जी अगर साधु संतों की रक्षा करते हैं तो दुष्टों को दंड देने का कार्य भी वे करते हैं। जिस प्रकार की पुलिस की ड्यूटी होती है कि वह सज्जन लोगों की रक्षा करें। उसी प्रकार से चोर बदमाश डकैत आदि को दंड देना भी पुलिस की ही जवाबदारी है। हालांकि वर्तमान में भारतीय पुलिस कई स्थानों पर इसका उल्टा भी करती है।
आइए अब हम असुर पर विचार करें। हम कह सकते हैं की जो सुर नहीं है वह असुर है। प्राचीन पौराणिक ग्रंथों में असुर, दैत्य और राक्षस की तीन श्रेणियां है। यह सभी देवताओं का विरोध करते हैं। अब अगर हम रामायण या रामचरितमानस को देखें और पढ़ें तो पाएंगे कि हनुमान जी ने राक्षसों का वध सुंदरकांड से प्रारंभ किया है और युद्ध कांड या लंका कांड में लगातार करते चले गए हैं। इन्हीं राक्षसों को गोस्वामी तुलसीदास जी ने असुर कहकर संबोधित किया है। हनुमान जी के पराक्रम का विवरण गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित रामचरितमानस एवं महर्षि वाल्मीकि रचित बाल्मीकि रामायण में मिलता है। दोनों स्थानों पर यह विस्तृत रूप से बताया गया है कि हनुमान जी ने किन-किन राक्षसों का संहार किया है। हनुमान जी का श्री रामचंद्र जी से मिलन किष्किंधा कांड में होता है। उसके उपरांत सुंदरकांड और युद्ध कांड/लंका कांड में हनुमान जी द्वारा मारे गए एक एक राक्षस के बारे में बताया गया है।
सबसे पहले हम सुंदरकांड में हनुमान जी द्वारा मारे गए राक्षसों की चर्चा करते हैं-
सिंहिका वध-
जब श्री हनुमान जी माता सीता का पता लगाने के लिए समुद्र के ऊपर से जा रहे थे तब सिंहिका राक्षसी ने हनुमान जी को रोकने का प्रयास किया था। उसने हनुमान जी को खा जाने की चेष्टा की थी। सिंहिका राक्षसी समुद्र के ऊपर उड़ने वाले पक्षियों की छाया को देखकर छाया पकड़ लेती थी। जिससे कि उस पक्षी की गति रुक जाती थी। इसके उपरांत वह उस पक्षी को खा जाती थी। हनुमान जी जब समुद्र के ऊपर से लंका की तरफ जा रहे थे तो सिंहिका ने हनुमान जी की छाया को पकड़ लिया। हनुमान जी की गति रुक गई। गति रुकने के बारे में पता करने के लिए हनुमान जी ने चारों तरफ देखा परंतु पाया कि चारों तरफ किसी प्रकार का कोई अवरोध नहीं है। इसके उपरांत उन्होंने नीचे का देखा तब समझ में आया की सिंहिका ने उनकी छाया को पकड़ रखा है। इसके आगे का विवरण वाल्मीकि रामायण, श्रीरामचरितमानस और हनुमत पुराण में अलग-अलग है।
हनुमत पुराण के अनुसार हनुमान जी वेगपूर्वक सिंहिका के ऊपर कूद पड़े। भूधराकार, महातेजस्वी, महाशक्तिशाली पवन पुत्र के भार से सिंहिका पिसकर चूर चूर हो गई। वाल्मीकि रामायण के सुंदरकांड के प्रथम सर्ग के श्लोक क्रमांक 192 से 195 के बीच में इसका पूरा विवरण दिया गया है। इसके अनुसार हनुमानजी उसको देखते ही लघु आकार के हो गए और तुरंत उसके मुंह में प्रवेश कर गए। उन्होंने अपने नाखूनों से उसके मर्मस्थलों को विदीर्ण कर उसका वध किया और फ़िर सहसा उसके मुख से बाहर निकल आए।
ततस्तस्या नखैस्तीक्ष्णैर्मर्माण्युत्कृत्य वानरः।
उत्पपाताथ वेगेन मनः सम्पातविक्रमः॥
(वाल्मीकि रामायण /सुंदरकांड /प्रथम सर्ग/194)
रामचरितमानस में सिर्फ इतना लिखा हुआ है कि समुद्र में एक निशिचर रहता था। यह आकाश में उड़ते हुए जीव-जंतुओं को मारकर खा जाता था। हनुमान जी को भी उसने खाने का भी उसने प्रयास किया, परंतु पवनसुत ने उसको मार कर के स्वयं समुद्र के उस पार पहुंच गए।
किंकर राक्षसों का वध-
देवी सीता से वार्तालाप करने के उपरांत हनुमान जी ने सोचा थोड़ी अपनी शक्ति का प्रदर्शन किया जाए। वे अशोक वाटिका को पूर्णतया विध्वंस करने लगे। उनको रोकने के लिए कींकर राक्षसों का समूह आया। वे सब के सब एक साथ हनुमानजी पर टूट पड़े। हनुमान जी ने उन सभी को समाप्त कर दिया। जो कुछ थोड़े बहुत बच गये वे इस घटना के बारे में बताने के लिए रावण के पास गए।
स तं परिघमादाय जघान रजनीचरान्।
स पन्नगमिवादाय स्फुरन्तं विनतासुतः॥
(वाल्मीकि रामायण /सुंदरकांड /42 /40)
विचचाराम्बरे वीरः परिगृह्य च मारुतिः।
स हत्वा राक्षसान्वीरान्किङ्करान्मारुतात्मजः।
युद्धाकाङ्क्षी पुनर्वीरस्तोरणं समुपाश्रितः।
(वाल्मीकि रामायण /सुंदरकांड/42/41 -42)
रामचरितमानस में भी इस घटना का इसी प्रकार का विवरण है-
चलेउ नाइ सिरु पैठेउ बागा।
फल खाएसि तरु तोरैं लागा॥
रहे तहाँ बहु भट रखवारे।
कछु मारेसि कछु जाइ पुकारे॥
इन लोगों ने जाकर जब रावण से इस घटना के बारे में बताया तब रावण ने कुछ और विशेष बलशाली राक्षसों को भेजा-
सुनि रावन पठए भट नाना।
तिन्हहि देखि गर्जेउ हनुमाना॥
सब रजनीचर कपि संघारे।
गए पुकारत कछु अधमारे॥
भावार्थ- यह बात सुनकर रावण ने बहुत सुभट पठाये (राक्षस योद्धा भेजे)। उनको देखकर युद्धके उत्साह से हनुमानजी ने भारी गर्जना की। हनुमानजी ने उसी समय तमाम राक्षसों को मार डाला। जो कुछ अधमरे रह गए थे वे वहां से पुकारते हुए भागकर गए।
चैत्य प्रसाद के सामने राक्षसों वध-
अशोक वाटिका को नष्ट करने के उपरांत हनुमान जी रावण के महल चैत्य प्रसाद चढ गये। एक खंभा उखाड़ कर वहां पर उपस्थित सभी राक्षसों को मारने लगे। वाल्मीकि रामायण में इसको यों कहा गया है-
दह्यमानं ततो दृष्ट्वा प्रासादं हरियूथपः।
स राक्षसशतं हत्त्वा वज्रेणेन्द्र इवासुरान्॥
(वाल्मीकि रामायण/ सुंदरकांड/43/19)
जम्बुमाली वध-
इसके बाद रावण ने अपने पौत्र जम्बुमाली को युद्ध करने भेजा। दोनों में कुछ देर तक अच्छा युद्ध हुआ। इसके बाद हनुमानजी ने एक परिघ को उठाकर उसकी छाती पर प्रहार किया। इस वार से रावण का पौत्र धाराशाई हो कर पृथ्वी पर गिर पड़ा तथा मृत्यु को प्राप्त हुआ।
जम्बुमालिं च निहतं किङ्करांश्च महाबलान्।
चुक्रोध रावणश्शुत्वा कोपसंरक्तलोचनः॥
स रोषसंवर्तितताम्रलोचनः प्रहस्तपुत्त्रे निहते महाबले।
अमात्यपुत्त्रानतिवीर्यविक्रमान् समादिदेशाशु निशाचरेश्वरः॥
(वाल्मीकि रामायण/सुंदरकांड/44/19-20)
प्रहस्त पुत्र महाबली जम्बुमाली और 10 सहस्त्र महाबली किंकर राक्षसों के मारे जाने का संवाद सुन रावण ने अत्यंत पराक्रमी और बलवान मंत्री पुत्रों को युद्ध करने के लिए तुरंत जाने की आज्ञा दी।
परमवीर महावीर हनुमान जी ने इस दौरान कुछ और विशेष राक्षसों का वध किया जिनके नाम निम्न हैं-
1-रावण के सात मंत्रियों के पुत्रों का वध,
2-रावण के पाँच सेनापतियों का वध, रावण ने विरूपाक्ष, यूपाक्ष, दुर्धर, प्रघस और भासकर्ण ये पांच सेनापति हनुमानजी के पास भेजे। यह सभी हनुमान जी द्वारा मारे गए।
3-रावणपुत्र अक्षय कुमार का वध।
स भग्नबाहूरुकटीशिरोधरः क्षरन्नसृङिनर्मथितास्थिलोचनः।
सम्भग्नसन्धि: प्रविकीर्णबन्धनो हतः क्षितौ वायुसुतेन राक्षसः॥
(वाल्मीकि रामायण /सुंदरकांड/47/36)
नीचे गिरते ही उसकी भुजा, जाँघ, कमर और छाती के टुकड़े-टुकड़े हो गये, खून की धारा बहने लगी, शरीर की हड्डियाँ चूर-चूर हो गयीं, आँखें बाहर निकल आयीं, अस्थियों के जोड़ टूट गये और नस-नाड़ियों के बन्धन शिथिल हो गये। इस तरह वह राक्षस पवन कुमार हनुमान जी के हाथ से मारा गया।
4-लंका दहन
5-धूम्राक्ष का वध
5-अकम्पन का वध
6-रावणपुत्र देवान्तक और त्रिशिरा का वध
7-निकुम्भ का वध
8-अहिरावण का वध
महाबली हनुमान जी ने पंचमुखी हनुमान जी का रूप धारण कर अहिरावण का वध कर राम और लक्ष्मण जी को पाताल लोक से वापस लेकर के आए थे। इनके अलावा युद्ध के दौरान महाबली हनुमान ने सहस्त्र और राक्षसों का वध किया। अशोक वाटिका में सीता जी ने भी हनुमान जी को रघुनाथ जी का सबसे ज्यादा प्रिय होने का वरदान दिया है। यह वरदान सीता माता जी ने उनको अशोक वाटिका में दिया है। ऐसा हमें रामचरितमानस के सुंदरकांड में लिखा हुआ मिलता है-
अजर अमर गुननिधि सुत होहू।
करहुँ बहुत रघुनायक छोहु॥
करहुँ कृपा प्रभु अस सुनि काना।
निर्भर प्रेम मगन हनुमाना॥”
पुत्र! तुम अजर (बुढ़ापे से रहित), अमर और गुणों के खजाने हो। श्री रघुनाथजी तुम पर बहुत कृपा करें। ‘प्रभु कृपा करें’ ऐसा कानों से सुनते ही हनुमान जी पूर्ण प्रेम में मग्न हो गए।
इस प्रकार असुरों को समाप्त करके हनुमान जी रामचंद्र जी के प्रिय हो गए। रामचंद्र जी ने इसके उपरांत हनुमान जी को कई वरदान दिये। अगली चौपाई तुलसीदास जी लिखते हैं-
“अष्ट सिद्धि नौ निधि के दाता ,
अस बर दीन जानकी माता”
मां जानकी ने हनुमान जी को वरदान दिया है कि वे अष्ट सिद्धि और नवनिधि का वरदान किसी को भी दे सकते हैं। इसका अर्थ है हनुमान जी के पास पहले से ही अष्ट सिद्धियां और नौ निधियां थीं परंतु इनको वे किसी को दे नहीं सकते थे। माता सीता ने हनुमान जी को यह वरदान दिया है कि वे अपनी इन सिद्धियों निधियों को दूसरों को भी दे सकते हैं।
भारतीय दर्शन में अष्ट सिद्धियों और 9 निधियों का बहुत महत्व है। अष्ट सिद्धियों के बारे में निम्न श्लोक है-
अणिमा महिमा चैव लघिमा गरिमा तथा।
प्राप्तिः प्राकाम्यमीशित्वं वशित्वं चाष्ट सिद्धयः॥
अर्थ- अणिमा, महिमा, लघिमा, गरिमा तथा प्राप्ति प्राकाम्य इशित्व और वशित्व ये सिद्धियां “अष्टसिद्धि” कहलाती हैं।
ऐसी पारलौकिक और आत्मिक शक्तियां जो तप और साधना से प्राप्त होती हैं सिद्धियां कहलाती हैं। ये कई प्रकार की होती हैं। इनमें से अष्ट सिद्धियां जिनके नाम हैं अणिमा, महिमा, लघिमा, गरिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, इशित्व और वशित्व ज्यादा प्रसिद्ध हैं।
1-अणिमा-
अपने शरीर को एक अणु के समान छोटा कर लेने की क्षमता। इस सिद्धि को प्राप्त करने के उपरांत व्यक्ति छोटे से छोटा आकार धारण कर सकता है और वह इतना छोटा हो सकता है कि वह किसी को दिखाई ना दे। हनुमान जी जब श्री लंका गए थे तो वहां पर सीता मां का पता लगाने के लिए उन्होंने अत्यंत लघु रूप धारण किया था। यह उनकी अणिमा सिद्धि का ही चमत्कार है।
2. महिमा-
शरीर का आकार अत्यन्त बड़ा करने की क्षमता। इस सिद्धि को प्राप्त करने के उपरांत व्यक्ति अपना आकार असीमित रूप से बढ़ा सकता है। सुरसा ने जब हनुमान जी को पकड़ने के लिए अपने मुंह को बढ़ाया था तो हनुमान जी ने भी उस समय अपने शरीर का आकार बढा लिया था। यह चमत्कार हनुमान जी अपनी महिमा शक्ति के कारण कर पाए थे।
3. गरिमा-
शरीर को अत्यन्त भारी बना देने की क्षमता। गरिमा सिद्धि में व्यक्ति की शरीर का आकार वही रहता है परंतु व्यक्ति का भार वढ़ जाता है। यह व्यक्ति के शरीर के अंगो का घनत्व बढ़ जाने के कारण होता है। महाभारत काल में, भीम के घमंड को तोड़ने के लिए भगवान कृष्ण के आदेश पर हनुमान जी भीम के रास्ते में सो गए थे। भीम के रास्ते में हनुमान जी की पूंछ आ रही थी। भीम ने उनको अपनी पूछ हटाने के लिए कहा, परंतु हनुमान जी ने कहा कि मैं वृद्ध हो गया हूं। उठ नहीं पाता हूं। आप हटा दीजिए। भीम जी ने इस बात की काफी कोशिश की कि हनुमान जी की पूंछ को हटा सकें परंतु वे पूंछ को हटा नहीं पाए। इस प्रकार भीम जी का अत्यंत बलशाली होने का घमंड टूट गया।
4. लघिमा-
शरीर को भार रहित करने की क्षमता। यह सिद्धि गरिमा की प्रतिकूल सिद्धि है। इसमें शरीर का माप वही रहता है, परंतु उसका भार अत्यंत कम हो जाता है। इस सिद्धि में शरीर का घनत्व कम हो जाता है। इस सिद्धि के रखने वाले पुरुष पानी को सीधे चल कर पार कर सकते हैं।
5. प्राप्ति-
बिना रोक टोक के किसी भी स्थान पर कुछ भी प्राप्त कर लेने की क्षमता। प्राप्ति सिद्धि वाला व्यक्ति किसी भी स्थान पर बगैर रोक-टोक के कुछ भी प्राप्त कर सकता है। एक पुस्तक है Living with Himalayan masters, इस पुस्तक के लेखक नाम श्रीराम है। इस पुस्तक में लेखक ने लिखा है कि उनको हिमालय पर कुछ ऐसे संत मिले जिनसे कुछ भी खाने पीने की कोई भी चीज मांगो वह तत्काल प्रस्तुत कर देते थे। मेरी मुलाकात भी 1989 में सिवनी, मध्यप्रदेश में मध्य प्रदेश विद्युत मंडल के कार्यपालन यंत्री एमडी दुबे साहब से हुई थी। उनके पास भी इस प्रकार की सिद्धि है। इसके कारण वे कहीं से भी कोई भी सामग्री तत्काल बुला देते थे। मुझको उन्होंने एक शिवलिंग बुलाकर दिया था। वर्तमान में वे मुख्य अभियंता के पद से सेवानिवृत्त होने के बाद जबलपुर में निवास करते हैं। मुझे बताया गया है कि अभी करीब 3 महीने पहले श्रीसत्यनारायण कथा के दौरान श्रीसत्यनारायण कथा के वाचक हिमांशु तिवारी द्वारा श्रीयंत्र मांगे जाने पर उनको तत्काल श्रीयंत्र अर्पण किया था।
6. प्राकाम्य-
इस सिद्धि में व्यक्ति जमीन के अलावा नदी पर भी चल सकता है हवा में भी उड सकता है। कई लोगों ने वाराणसी में गंगा नदी को चलकर के पार किया है।
7. ईशित्व-
प्रत्येक वस्तु और प्राणी पर पूर्ण अधिकार की क्षमता। ईशित्व सिद्धि वाले व्यक्ति अगर चाहे तो पूरे संसार को अपने वश में कर सकता है। अगर वह चाहे तो उसके सामने वाले साधारण व्यक्ति को ना चाहते हुए भी उसकी बात माननी ही पड़ेगी।
8. वशित्व-
प्रत्येक प्राणी को वश में करने की क्षमता। इस सिद्धि को रखने वाला व्यक्ति किसी को भी अपने वश में कर सकता है। हम यह कह सकते हैं सम्मोहन विद्या जानने वाले व्यक्ति के पास वशित्व की सिद्धि होती है।
अष्ट सिद्धियां वे सिद्धियाँ हैं, जिन्हें प्राप्त कर व्यक्ति किसी भी रूप और देह में वास करने में सक्षम हो सकता है। वह सूक्ष्मता की सीमा पार कर सूक्ष्म से सूक्ष्म तथा जितना चाहे विशालकाय हो सकता है।
परमात्मा के आशीर्वाद के बिना सिद्धि नहीं पायी जा सकती। अर्थात साधक पर भगवान की कृपा होनी चाहिए। भगवान हमारे ऊपर कृपा करें इसके लिए हमारे अंदर भी कुछ गुण होना चाहिए। हमारा जीवन ऐसा होना चाहिए कि उसे देखकर भगवान प्रसन्न हो जाएं। एक बार आप भगवान के बन गये तो फिर साधक को सिद्धि और संपत्ति का मोह नहीं रहता। उसका लक्ष्य केवल भगवद् प्राप्ति होती है।
कुछ लोग सिद्धि प्राप्त करने के चक्कर में अपना संपूर्ण जीवन समाप्त कर देते है। एक बार तुकाराम महाराज को नदी पार करनी थी। उन्होने नाविक को दो पैसे दिये और नदी पार की। उन्होने भगवान पांडुरंग के दर्शन किये। थोडी देर के बाद वहाँ एक हठयोगी आया उसने नांव में न बैठकर पानी के ऊपर चलकर नदी पार की। उसके बाद उसने तुकाराम महाराज से पूछा, ‘क्या तुमने मेरी शक्ति देखी?’
तुकाराम महाराज ने कहा हाँ, तुम्हारी योग शक्ति मैने देखी। मगर उसकी कीमत केवल दो पैसे हैै। यह सुनकर हठयोगी गुस्से में आ गया। उसने कहा, तुम मेरी योग शक्ति की कीमत केवल दो पैसे गिनते हो? तब तुकाराम महाराज ने कहा, हाँ मुझे नदी पार करनी थी। मैने नाविक को दो पैसे दिये और उसने नदी पार करा दी। जो काम दो पैसे से होता है वही काम की सिद्धि के लिए तुमने इतने वर्ष बरबाद किये, इसलिए उसकी कीमत दो पैसे मैने कही। कहने का तात्पर्य हमारा लक्ष्य भगवद्प्राप्ति का होना चाहिए। उसके लिए प्रयत्न करना चाहिए।
हमारा मन काम-वासना से गीला रहता है। गीले मन पर भक्ति का रंग नहीं चढ़ता। मकान की दीवारें गीली होती है, तो उन पर रंग-सफेदी आदि नहीं की जाती। ऐसे ही मन का भी है। गीली लकड़ी जलाई जाती है तो धुआँ उड़ कर दूसरे की आँखाें से आंसू निकालता है। इसलिए मन में से वासना-लालसा निकालकर उसे शुष्क करना पड़ेगा, तभी उसमें भक्ति का रंग खिलेगा और भगवान उसे स्वीकार करेंगे।
आइए अब हम नव निधियों के बारे में बात करते हैं-
1-पद्म निधि, 2. महापद्म निधि, 3. नील निधि, 4. मुकुंद निधि, 5. नंद निधि, 6. मकर निधि, 7. कच्छप निधि, 8. शंख निधि और 9. खर्व या मिश्र निधि। माना जाता है कि नव निधियों में केवल खर्व निधि को छोड़कर शेष 8 निधियां पद्मिनी नामक विद्या के सिद्ध होने पर प्राप्त हो जाती हैं, लेकिन इन्हें प्राप्त करना इतना भी सरल नहीं है।
पद्म निधि-
पद्म निधि के लक्षणों से संपन्न मनुष्य सात्विक गुण युक्त होता है। उसकी कमाई गई संपदा भी सात्विक होती है। सात्विक तरीके से कमाई गई संपदा से कई पीढ़ियों को धन-धान्य की कमी नहीं रहती है। ये लोग उदारता से दान भी करते हैं।
महापद्म निधि-
महापद्म निधि भी पद्म निधि की तरह सात्विक है। हालांकि इसका प्रभाव 7 पीढ़ियों के बाद नहीं रहता। इस निधि से संपन्न व्यक्ति भी दानी होता है। वह और उसकी 7 पीढियों तक सुख ऐश्वर्य भोगा जाता है।
नील निधि-
नील निधि उनके पास होती है जो कि धन सत्व और रज गुण दोनों ही से अर्जित करते हैं। सामान्यतया ऐसी निधि व्यापार द्वारा ही प्राप्त होती है। इसलिए इस निधि से संपन्न व्यक्ति में दोनों ही गुणों की प्रधानता रहती है। इस निधि का प्रभाव तीन पीढ़ियों तक ही रहता है।
मुकुंद निधि-
मुकुंद निधि में रजोगुण की प्रधानता रहती है। इसलिए इसे राजसी स्वभाव वाली निधि कहा गया है। इस निधि से संपन्न व्यक्ति या साधक का मन भोगादि में लगा रहता है। ऐसे व्यक्ति स्वयं निधि अर्जित करते हैं और स्वयं उसको खा पीकर समाप्त कर देते हैं। इसका एक उदाहरण नोएडा के पास रहने वाले मेरे मित्र के भाई साहब। भाई साहब किसान हैं और उनके पास बहुत ज्यादा जमीन है। इस जमीन को शासन ने एक्वायर की थी। उसके उपरांत मुआवजा दिया था। उस समय के हिसाब से मुआवजा की रकम काफी बड़ी थी। भाई साहब ने जमीन का मुआवजा पाने के उपरांत 10 साल तक लगातार पार्टी करने में व्यस्त रहे। उनका लिवर खराब हो गया जो कुछ बचा था वह दवा में खर्च हो गया और अंत में पूरी निधि समाप्त हो गई। मुकुंद निधि पहली पीढ़ी बाद खत्म हो जाती है।
नंद निधि-
नंद निधि में रज और तम गुणों का मिश्रण होता है। माना जाता है कि यह निधि साधक को लंबी आयु व निरंतर तरक्की प्रदान करती है। ऐसी निधि से संपन्न व्यक्ति अपनी प्रशंसा की सुनना चाहता है। अगर आप उसको उसकी अवगुणों के बारे में बताएं तो वह अत्यंत नाराज हो जाएगा। ऐसे व्यक्ति आपके आसपास काफी मात्रा में मिलेंगे जैसे कि आपके अपने अधिकारी। उनको अपने पिछले जन्म में किए गए कार्यों के कारण अधिकार मिले। इस जन्म में वे इस अधिकार में इतने गरूर में आ गए कि अगर उनको कोई उनकी बुराई बताएं तो वे अत्यंत नाराज हो जाएंगे।
मकर निधि-
मकर निधि को तामसी निधि कहा गया है। तमस हम अंधकार को कहते हैं। राक्षस और निशाचर तामसिक वृत्ति के होते हैं। इस निधि से संपन्न साधक अस्त्र और शस्त्र को संग्रह करने वाला होता है। आज के बाहुबली राजनीतिज्ञ इसी निधि के उदाहरण है। ऐसे व्यक्ति का राज्य और शासन में दखल होता है। वह शत्रुओं पर भारी पड़ता है और मारपीट के लिए तैयार रहता है। इनकी मृत्यु भी अस्त्र-शस्त्र या दुर्घटना में होती है। आतंकी घुसपैठिए मकर निधि के स्वामी होते हैं। डाकू भी इसी निधि के वाहक होते हैं।
शंख निधि-
शंख निधि को प्राप्त व्यक्ति स्वयं की ही चिंता और स्वयं के ही भोग की इच्छा करता है। वह कमाता तो बहुत है, लेकिन उसके परिवार और यहां तक की अपने पत्नी और बच्चों को भी नहीं देता है। शंख निधि के परिवार वाले भी गरीबी में ही जीते हैं। ऐसा व्यक्ति धन का उपयोग स्वयं के सुख-भोग के लिए करता है। उसका परिवार गरीबी में जीवन गुजारता है।
कच्छप निधि-
कच्छप निधि का साधक अपनी संपत्ति को छुपाकर रखता है। न तो स्वयं उसका उपयोग करता है, न करने देता है। वह सांप की तरह उसकी रक्षा करता है। जिस प्रकार एक कछुआ अपने सभी अंगों को अपने अंदर समेट लेता है और उसके ऊपर एक काफी मजबूत कवच रहता है, ऐसे ही कच्छप निधि वाले व्यक्ति धन होते हुए भी उसका उपभोग नहीं कर करते हैं और ना किसी को करने देते हैं। आप बहुत सारे ऐसे भिखारी देखोगे जिनके पास पैसा तो बहुत रहा है, परंतु उन्होंने कुछ भी सुख नहीं भोगा और उनके मरने के बाद उनके सामान में से लाखों रुपए बरामद हुए।
खर्व निधि-
खर्व निधि को मिश्रित निधि कहते हैं। नाम के अनुरुप ही इस निधि से संपन्न व्यक्ति में अन्य आठों निधियों का सम्मिश्रण होती है। इस निधि से संपन्न व्यक्ति को मिश्रित स्वभाव का कहा गया है। उसके कार्यों और स्वभाव के बारे में भविष्यवाणी नहीं की जा सकती। माना जाता है कि इस निधि को प्राप्त व्यक्ति घमंडी भी होता हैं। यह मौके मिलने पर दूसरों का पैसा छीन सकता है। इसके पास तामसिक वृत्ति ज्यादा होती है।
अब इनमें से आप जो भी सिद्धि और निधि चाहते हो उसको देने के लिए हमारे आराध्य श्री हनुमान जी समर्थ है। आपको मन क्रम वचन को एकाग्र करके शुद्ध सात्विक मन से केवल स्मरण करना है। आपके लिए जो भी उपयुक्त होगा वह वे स्वयं प्रदान कर देंगे।
जय श्री राम
जय हनुमान