Monday, November 18, 2024
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हमारे हनुमान जी विवेचना भाग आठ: सहस बदन तुम्हरो जस गावैं

ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय
प्रश्न कुंडली एवं वास्तु शास्त्र विशेषज्ञ
साकेत धाम कॉलोनी, मकरोनिया
सागर, मध्य प्रदेश- 470004
व्हाट्सएप- 8959594400

सहस बदन तुम्हरो जस गावैं।
अस कहि श्रीपति कण्ठ लगावैं॥
सनकादिक ब्रह्मादि मुनीसा।
नारद सारद सहित अहीसा॥

अर्थ
हजार मुख वाले शेषनाग तुम्हारे यश का गान करें- ऐसा कहकर लक्ष्मीपति विष्णुस्वरूप भगवान श्रीराम ने आपको अपने हृदय से लगा लियाI हे हनुमान जी आपके यशों का गान तो सनकादिक ऋषि, ब्रह्मा और अन्य मुनि गण, नारद और सरस्वती सभी करते हैं।

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भावार्थ
श्री रामचंद्र जी ने कहा कि हे हनुमान जी आप का यश पूरे ब्रह्मांड में फैल जाएगा। हर समय आप के यश का गान होगा। हजार मुख वाले शेषनाग जी भी आपके यश का गान करेंगे। ऐसा कहते हुए लक्ष्मण जी के मूर्छा से वापस आने पर प्रसन्न होकर लक्ष्मीपति विष्णु जी के अवतार श्री रामचंद्र जी ने श्री हनुमान जी को गले से लगाया।
गले से लगाते हुए श्री रामचंद्र जी ने पुनः कहा कि सनक आदि ऋषि गण ब्रह्मा आदि देवता गण और सभी मुनि तथा स्वयं सरस्वती देवी और नारद जी आप की पूर्ण प्रशंसा करने में असमर्थ हैं। कोई भी आपकी पूर्ण प्रशंसा नहीं कर सकता।

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संदेश
अच्छे कर्म करने पर ईश्वर भी अपने भक्त के भक्त बन जाते हैं। इसलिए ऐसे कर्म करें, जिससे सबका भला हो।

इन चौपाइयों का बार बार पाठ करने से होने वाला लाभ
1-सहस बदन तुम्हरो जस गावैं। अस कहि श्रीपति कण्ठ लगावैं॥
2-सनकादिक ब्रह्मादि मुनीसा। नारद सारद सहित अहीसा॥

हनुमान चालीसा की इन चौपाईयों के बार बार पाठ करने से यश, सम्मान, प्रसिद्धि और कीर्ति बढ़ती है। अगर आपको मान और प्रतिष्ठा प्राप्त करना हो तो इन चौपाइयों का बार-बार पाठ करना चाहिए।

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विवेचना
हम सभी जानते हैं कि हनुमान जी के द्वारा किए गए कार्यों से प्रसन्न होकर श्री रामचंद्र जी ने हनुमान जी की कई बार प्रशंसा की तथा गले से भी लगाया था। हनुमान चालीसा में इस चौपाई से पहले की चौपाई में कहा गया है-
“लाय सजीवन लखन जियाये”
इसी के बाद यह चौपाई आई है कि “सनकादिक ब्रह्मादि मुनीसा”। अतः हम कह सकते हैं की यह प्रशंसा संजीवनी बूटी लाने के लिए है। घटना इस प्रकार है-
लक्ष्मण जी मेघनाथ द्वारा किए गए शक्ति प्रहार से मूर्छित हो गए थे। श्री लक्ष्मण जी को शीघ्र स्वस्थ करने के लिए हनुमान जी विभीषण की सलाह पर श्रीलंका से सुषेण वैद्य को लेकर आए। सुषेण वैद्य ने संजीवनी बूटी की आवश्यकता बताई। यह भी बताया कि संजीवनी बूटी द्रोणागिरी पर्वत पर मिलती है। हनुमान जी संजीवनी बूटी को लाने के लिए द्रोणागिरी पर्वत पर गए। वे द्रोणागिरी पर्वत को जिस पर संजीवनी बूटी थी को लेकर वापस शिविर में पहुंचे उस समय का दृश्य विकट था। श्री रामचंद्र जी अत्यंत परेशान थे । पूरी वानर सेना प्रलाप कर रही थी । हनुमान जी के आते ही सुषेण वैद्य ने संजीवनी बूटी को पीस करके श्री लक्ष्मण जी को पिलाया और वे मुर्छा से जाग गए ।रामचरितमानस में इस प्रसंग को निम्नानुसार कहा गया है-
प्रभु प्रलाप सुनि कान बिकल भए बानर निकर।
आइ गयउ हनुमान जिमि करुना महँ बीर रस॥61॥

हरषि राम भेंटेउ हनुमाना। अति कृतग्य प्रभु परम सुजाना॥
तुरत बैद तब कीन्ह उपाई। उठि बैठे लछिमन हरषाई॥1॥
( रामचरितमानस/लं कां /61 /1)

यहां पर भी यही कहा गया है रामचंद्र जी ने प्रसन्न होकर हनुमान जी को भेंटा अर्थात गले लगाया। गले लगाने के उपरांत श्री रामचंद्र जी ने क्या कहा यह इस चौपाई या दोहा में नहीं आया है। इस बात को हनुमान चालीसा स्पष्ट किया गया है। हनुमान चालीसा में बताया गया है कि गले लगाने के बाद श्री रामचंद्र जी ने हनुमान जी के लिए क्या कहा।
श्री रामचरितमानस में हनुमान जी जब सीता जी का पता लगा कर के श्री रामचंद्र जी के पास पहुंचे तब वहां पर पूरे आख्यान को जामवंत जी ने श्री रामचंद्र जी को बताया-
नाथ पवनसुत कीन्हि जो करनी।
सहसहुँ मुख न जाइ सो बरनी॥

पवनतनय के चरित सुहाए।
जामवंत रघुपतिहि सुनाए॥

जामवंत जी ने कहा कि हे नाथ! पवनपुत्र हनुमानजी ने जो काम किया है उसका हजार मुखों से भी वर्णन नहीं किया जा सकता । हनुमानजी की प्रशंसा करते हुए उनके कार्यों को जामवंत जी ने श्री रामचंद्र जी को बताया-
सुनत कृपानिधि मन अति भाए।
पुनि हनुमान हरषि हियँ लाए॥

कहहु तात केहि भाँति जानकी।
रहति करति रच्छा स्वप्रान की॥

उन वचनों को सुनकर दयालु श्रीरामचन्द्न जी उठकर हनुमानजी को अपनी छाती से लगाया और श्रीराम ने हनुमान जी से पूछा कि हे तात! कहो, सीता किस तरह रहती है? और अपने प्राणों की रक्षा वह किस तरह करती है?

यहां पर जामवंत जी ने कहा है कि हनुमान जी ने जो कुछ किया है उसकी प्रशंसा सहस्त्रों मुख से भी नहीं की जा सकती है। जबकि हनुमान चालीसा में यही बात श्री रामचंद्र जी ने स्वयं कही है। श्री रामचंद्र ने कहा है कि सहस्त्र मुख वाले शेषनाग जी तुम्हारे यश का वर्णन करेंगे। यहां पर सहस बदन का अर्थ है सहस्त्र बदन। बदन शब्द का अर्थ संस्कृत में मुख से होता है। अतः सहसबदन का अर्थ हुआ सहस्त्र मुख वाले अर्थात शेषनाग जी।

यहां पर यह बताया गया है हनुमान जी की जितनी भी प्रशंसा की जाए कम है। अगर शेषनाग जी अपने सभी सहस्त्र मुखों से भी हनुमान जी की प्रशंसा करना चाहे तो भी वह भी नहीं कर पाएंगे।

अब यहां प्रश्न यह उठता है कि श्रीरामचंद्र जी ने हनुमान जी के यश के वर्णन के लिए शेषनाग जी को ही क्यों उपयुक्त माना।

तुलसीदास जी ने संभवत शेषनाग जी का नाम श्री विष्णु के अवतार श्री रामचंद्र जी के संदर्भ में लिया गया है। धरती, जंगल, समुद्र यह सब पार्थिव हैं। जबकि शेषनाग जी देवताओं की श्रेणी में आते हैं। श्री लक्ष्मण जी श्री शेषनाग जी के ही अवतार थे। एक देवता जिसके सहस्त्र मुख है वह भी जिसकी पूर्ण प्रशंसा न कर सके फिर तो उसकी पूर्ण प्रशंसा करना संभव ही नहीं है। संभवत यही श्री रामचंद्र जी का हनुमान जी के प्रशंसा के लिए श्री शेषनाग का संदर्भ देने का कारण है।

इसी चौपाई में आगे श्री रामचंद्र जी को श्रीपति कहा गया है। हनुमान चालीसा में लिखा है “अस कहि श्रीपति कंठ लगावें”। आखिर यहां पर श्री रामचंद्र जी को श्री अर्थात लक्ष्मी जी से क्यों जोड़ा गया है। उनको श्रीपति अर्थात विष्णु जी क्यों कहा गया है। इस स्थान के अलावा हनुमान चालीसा के किसी अन्य स्थान पर भगवान श्रीराम को श्रीपति कहकर संबोधित नहीं किया गया है।

यहां पर भगवान श्रीराम को श्रीपति कहने का विशेष आशय है। हम सभी जानते हैं कि श्री शब्द का अर्थ है देवी लक्ष्मी, शुभ, आलोक, समृद्धि, प्रथम, श्रेष्ठ, सौंदर्य, अनुग्रह, प्रतिभा, गरिमा शक्ति, सरस्वती आदि।

श्री शब्द का सबसे पहले ऋग्वेद में उल्लेख मिलता है। अनेक धर्म पुस्तकों में लिखा गया है कि ‘श्री’ शक्ति है। जिस व्यक्ति में विकास करने की और खोज की शक्ति होती है, वो श्री युक्त माना जाता है।

राम को जब श्रीराम कहा जाता है, तब राम शब्द में ईश्वरत्व का बोध होता है। इसी तरह श्रीकृष्ण, श्रीलक्ष्मी और श्रीविष्णु तथा श्री हरी के नाम में ‘श्री’ शब्द उनके व्यक्तित्व, कार्य, महानता और अलौकिकता को प्रकट करता है। श्रीपति कहने से स्पष्ट होता है की रामचंद्र जी कोई साधारण पुरुष नहीं बल्कि अवतारी पुरुष हैं। अवतारी पुरुष द्वारा हनुमान जी को अपने गले से लगाना प्रतिष्ठा देने की उच्चतम पराकाष्ठा है। रामचंद्र जी वनवास में है, परंतु अयोध्या के होने वाले राजा भी हैं। किष्किंधा के राजा सुग्रीव के मित्र भी हैं। इसके अलावा श्रीलंका के निर्वासित सरकार के मुखिया विभीषण जी को राज्य प्राप्त करने में सहायक भी हैं।

सनकादिक का अर्थ है सनक सनंदन सनातन और सनत्कुमार। सृष्टि के आरंभ में लोक पितामह ब्रह्मा ने अनेक लोकों की रचना करने की इच्छा से घोर तपस्या की। उनके तप से प्रसन्न होकर भगवान विष्णु ने तप अर्थ वाले सन नाम से युक्त होकर सनक, सनन्दन, सनातन और सनत्कुमार नाम के चार मुनियों के रूप में अवतार लिया। ये चारों प्राकट्य काल से ही मोक्ष मार्ग परायण, ध्यान में तल्लीन रहने वाले, नित्यसिद्ध एवं नित्य विरक्त थे। ये भगवान विष्णु के सर्वप्रथम अवतार माने जाते हैं।

यह सभी सर्वदा पांच वर्ष आयु के ही रहे। न कभी जवान हुए ना बुढ़े। ये चारों भाई एक साथ ही रहते हुए, ब्रह्मांड में विचरण करते रहते हैं। यह चारों भाई जहां भी जाते हैं निरंतर भजन और कीर्तन में मग्न रहते हैं। एक प्रकार से हम कह सकते हैं कि यह निरंतर बोलते रहते हैं। या तो ये भजन को भजन के रूप में बोलते हैं या कीर्तन के रूप में बोलते हैं। इस चौपाई में इनके नाम लेने का आशय यह है कि अगर यह चारों मुनि जो कि विष्णु भगवान के अवतार हैं अगर बगैर रुके हनुमानजी की प्रशंसा करते रहे तो भी चारों मिलकर भी हनुमान जी की प्रशंसा पूर्णरूपेण नहीं कर पाएंगे।

दूसरा शब्द है ब्रह्मादि। इस शब्द का आशय बिल्कुल स्पष्ट है। ब्रह्मादि का अर्थ है देव त्रयी अर्थात ब्रह्मा जी विष्णु जी और शिव जी। हिंदू धर्म यह माना जाता है इनका स्थान सभी देवताओं से ऊपर है। परंतु उनके भक्तों में इस बात का युद्ध रहता है कि इनमें बड़ा कौन है। विष्णु पुराण के अनुसार विष्णु जी सबसे पहले ब्रह्मांड में आए फिर उसके बाद शिव जी और ब्रह्मा जी आए। शिव पुराण के अनुसार शिवजी सबसे बड़े हैं। अगर हम इनके चित्र देखें तो ब्रह्मा जी सबसे वृद्ध दिखाई देते हैं। ब्रह्मा जी के बाद शिवजी और उसके उपरांत विष्णु जी कम आयु के दिखाई पड़ते हैं। परंतु वास्तव में यह तीनों एक ही है। केवल अलग-अलग कार्यों के लिए ये अलग अलग हो गए हैं। सृष्टि की रचना ब्रह्मा जी करते हैं। उनकी पत्नी सरस्वती जी ज्ञान की देवी हैं। वे इस कार्य में उनकी मदद करती है। इस पूरे जगत का पालनकर्ता भगवान विष्णु है। वह लक्ष्मी जी के साथ शेष शैया पर क्षीर सागर में निवास करते हैं। भगवान शिव विलीन कर्ता है। यह अपनी पत्नी और परिवार के साथ कैलाश पर्वत पर निवास करते हैं। यह सभी अजन्मे है। सभी शक्ति युक्त है। अलग-अलग कार्यों के लिए विभिन्न नाम से पुकारे जाते हैं। इस चौपाई के अनुसार ये सभी शक्तिशाली देवता भी अगर मिलकर हनुमानजी की प्रशंसा करना चाहे तो नहीं कर सकते।

अगला शब्द मुनीसा है जिसका आशय है सभी मुनि गण। ये ऋषि और मुनि धरती पर निवास करने वाला बौद्धिक वर्ग हैं जोकि निरंतर यज्ञ-हवन कीर्तन-भजन आदि कर्मों में लगा रहता है। इनकी संख्या करोड़ों में है। ‌इस चौपाई के अनुसार ये सभी भी मिलकर अगर हनुमान जी के कार्यों की प्रशंसा करना चाहे तो नहीं कर पाएंगे।

चौपाई के अगले खंड में “नारद सारद सहित अहीसा” कहा गया है।
नारद मुनि ब्रह्मा जी के छह पुत्रों में से छठे नंबर के हैं। उन्होंने कठिन तपस्या करने के उपरांत ब्रह्मर्षि पद को प्राप्त कर लिया है। नारद जी सदैव धर्म का प्रचार करते रहते हैं। वे पूरे ब्रह्मांड का भ्रमण करते रहते हैं। विष्णु जी के साथ इनका विशेष संपर्क है। ये सदा विष्णु जी की आराधना करते हैं। इनकी प्रशंसा में श्रीमद्भगवद्गीता के दशम अध्याय के २६वें श्लोक में स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने इनकी महत्ता को स्वीकार करते हुए कहा है- “देवर्षीणाम् च नारद:।”
देवर्षियों में मैं नारद हूं। इनका कार्य सदैव बोलने का ही है।
मां शारदा या सरस्वती विद्या की देवी है पूरा ज्ञान इनसे ही है।
अहीसा का अर्थ है सांपों के देवता अर्थात शेषनाग जी। शेषनाग जी के एक सहस्त्र मुख हैं। यह भी माना जाता है इनसे ज्यादा मुख किसी और प्राणी के पास नहीं। इस प्रकार मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीरामचंद्र कहते हैं कि यह सभी मिलकर के भी हनुमान जी द्वारा किए गए कार्यों की पूर्ण प्रशंसा करने में असमर्थ हैं। इसका अर्थ यह भी लगाया जा सकता है कि हनुमान जी के कार्यों की पूर्ण प्रशंसा करना असंभव है। अगली दो चौपाइयां भी इन्हीं चौपाइयों उसके साथ जुड़ी हुई है। उन चौपाइयों का अर्थ अगले भाग में बताया जाएगा।

जय हनुमान

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