और देवता चित्त न धरई।
हनुमत सेइ सर्ब सुख करई।।
संकट कटै मिटै सब पीरा।
जो सुमिरै हनुमत बलबीरा।।
अर्थ
किसी और देवता की पूजा न करते हुए भी सिर्फ हनुमान जी की कृपा से ही सभी प्रकार के फलों की प्राप्ति हो जाती है। जो भी व्यक्ति हनुमान जी का ध्यान करता है, उसके सब प्रकार के संकट और पीड़ा मिट जाते हैं।
भावार्थ
उपरोक्त दोनों चौपाइयों में एक ही बात कही गई है। आप को एकाग्र होकर के हनुमान जी को अपने चित्त में धारण करना है। आप अगर ऐसा कर लेते हैं तो कोई भी व्यक्ति, विपत्ति, संकट, पीड़ा, व्याधि आदि आपको सता नहीं सकता है। हम सभी श्री हनुमान जी से अष्ट सिद्धि और नव निधि के अलावा मोक्ष भी प्राप्त कर सकते हैं। श्री हनुमान जी की सेवा करके हम सभी प्रकार के सुख अर्थात आंतरिक और बाएं दोनों प्रकार के सुख प्राप्त कर सकते हैं। आपको चाहिए कि आप अपने आपको मनसा वाचा कर्मणा हनुमान जी के हवाले कर दें। जिससे आप जन्मों के बंधन से मुक्त हो सकें।
संदेश
अपने स्वभाव को श्री हनुमान जी की भांति नरम रखें और दयावान बनें।
इन चौपाईयों के बार बार पाठ करने से होने वाला लाभ-
1-और देवता चित्त न धरई। हनुमत सेइ सर्ब सुख करई।।
2-संकट कटै मिटै सब पीरा। जो सुमिरै हनुमत बलबीरा।।
जब भी आप कभी किसी संकट में पड़े इन दोनों चौपाइयों का 11 माला प्रीतिदिन का पाठ करें। साथ ही संकट को दूर करने का स्वयं भी प्रयास करें। हनुमान जी की कृपा से आपका संकट दूर हो जायेगा।
विवेचना
उपरोक्त दोनों चौपाइयों में मुख्य रूप से एक ही बात कही गई है, अगर आपको सभी संकटों से सभी व्याधियों से सभी बीमारियों से सभी खतरों से बचना है तो आप को हनुमान जी को समझना होगा। पहली पंक्ति में कहा गया है-
“और देवता चित्त न धरई। हनुमत सेइ सर्व सुख करई।।”
इस चौपाई को सुनने से ऐसा प्रतीत होता है की कवि तुलसीदास जी कह रहे हैं कि आपको और किसी देवता को अपने चित्त में धारण करने की आवश्यकता नहीं है। आपको केवल हनुमान जी की वंदना करनी है। जबकि तुलसीदास जी ने ही रामचरितमानस में भगवान शिवजी, भगवान ब्रह्मा जी, भगवान विष्णुजी, भगवान श्री रामचंद्र जी और हनुमान जी सब के गुण गाए हैं। फिर उन्होंने हनुमान चालीसा में केवल हनुमान जी की वंदना के लिए क्यों कहा है। आइए इसको समझने का प्रयास करते हैं।
हनुमान चालीसा के पहले और दूसरे दोहे की विवेचना लिखते समय मैंने हनुमान चालीसा लिखते समय तुलसीदास जी की उम्र का पता लगाने का प्रयास किया है। अंत में हमारे द्वारा यह नतीजा निकाला गया कि हनुमान चालीसा लिखते समय गोस्वामी तुलसीदास जी 10 से 15 वर्ष के रहे होंगे। गांव में कई प्रकार के देवता होते हैं। मेरे अपने गांव में हमारे ग्राम देवता बेउर बाबा और सती माई हैं। हमारी कुलदेवी बाराही जी हैं। ग्राम में जहां सब बच्चे खेलते थे वहां पर एक छोटा सा मंदिर है, जिसमें हनुमान जी की प्रतिमा और शिवलिंग विराजमान है। दुष्ट शक्तियों से रक्षा के लिए गांव की एक कोने में काली माई हैं। अब इन सभी मंदिरों में कोई व्यक्ति प्रतिदिन नहीं जा सकता है। क्योंकि सभी मंदिरों में प्रतिदिन जाने में काफी समय लगेगा। होता यह है विशेष अवसरों पर छोड़कर हर व्यक्ति अपना एक आराध्य ढूढ़ लेता है। कोई व्यक्ति बेउर बाबा के मंदिर पर प्रतिदिन जाता है। कुछ परिवार के लोग काली माई के मंदिर पर प्रतिदिन जाते हैं और कुछ लोग गांव के बीच में बने हुए भगवान शिव और हनुमान जी के मंदिर में प्रतिदिन जाते हैं।
आइए यह भी देखें कि इस का चुनाव किस तरह से होता है। मैं जब छोटा था तो मैं प्रतिदिन अपने बाबू जी के साथ गंगा स्नान को जाता था। बाबूजी गंगा स्नान कर लौटते समय अपने लोटे में गंगा जल भर लेते थे। रास्ते में बेउर बाबा का मंदिर पडता था। वहां पर रुक कर के हम थोड़ा सा जल बेउर बाबा और सती माई पर चाढ़ाते थे। हमारे घर के पास में शिव जी और हनुमान जी का मंदिर था। ध्यान रखें शिव लिंग और हनुमान जी की प्रतिमा दोनों एक साथ एक ही कमरे में थी। यहां पर हम लोग शिवलिंग के ऊपर गंगाजल डालकर शिवजी का अभिषेक करते थे और हनुमान जी के पैर छूते थे। इसके बाद घर आ जाते थे। काली जी के मंदिर में हम किसी विशेष दिन ही जाते थे। काली जी का मंदिर जिनके घर के पास था वह लोग प्रतिदिन काली जी के मंदिर जाते थे। इस प्रकार हर व्यक्ति ने अपना अपना देवी या देवता चुन लिया था। देवी और देवता चुनने में घर के नजदीक होना ही एकमात्र मापदंड था। किसी के दिमाग में यह नहीं था कि फला देवता बड़े हैं या फला देवता छोटे हैं। परंतु फिर भी ज्यादातर बच्चों के आराध्य हनुमान जी हुआ करते थे। मैं अब जब इसके बारे में सोचता हूं तो मुझे ऐसा समझ में आता है, इसमें बहुत बड़ा रोल जन श्रुतियों का और हनुमान चालीसा का है। बच्चों के बीच में एक विचार काफी तेजी से फैला था कि जब भी रात में बड़े बाग में जाना हो तो हनुमान चालीसा का जाप करना चाहिए। अगर हनुमान चालीसा याद नहीं है तो हनुमान जी हनुमान जी कहते हुए जाना चाहिए। बड़े बाग में रात में जाने की आवश्यकता के कारण हम सभी बच्चों को हनुमान चालीसा कंठस्थ हो गई थी। बचपन में हनुमान जी से लगी लौ आज भी ज्यों की त्यों विद्यमान है।
तुलसीदास जी ने भी हनुमान चालीसा अपने बाल्यकाल में लिखी है। उनको भी रात्रि में छत पर जाना पड़ता था। हम बालकों की तरह से वह भी रात में छत पर जाने से डरते थे। इसलिए उन्होंने भी हनुमान जी का सहारा लिया। मूल बात यह है कि आपको एक ऊर्जा स्रोत का सहारा लेना चाहिए। ऊर्जा स्रोत के अलावा इधर-उधर देखना आपके चित्त को भ्रमित करेगा। इसीलिए तुलसीदास जी ने लिखा कि हमें केवल हनुमान जी को ही अपने चित्त में धारण करना है और अगर हनुमान जी की सेवा करेंगे तो हमें सभी प्रकार के सुख में प्राप्त होंगे।
महिम्न स्तोत्र में पुष्पदंत कवि कहते हैं-
‘‘रुचीनां वैचित्र्याऋजु कुटिल नानापथजुषां’’
लोगों के रुचि-वैचित्र्य के कारण ही वे भिन्न-भिन्न देवताओं का पूजन करते हैं। लोगों की प्रकृति में अंतर होने के कारण उनकी ईश-कल्पना में भी अन्तर रहेगा ही। इसलिए किस आकार में, किस स्वरुप में ईश्वर का पूजन करना चाहिए, इस सम्बन्ध में शास्त्रकारों ने कोई आग्रह नहीं रखा। दो भिन्न-भिन्न देवताओं के मानने वालों के बीच में अज्ञान के कारण झगडा होता है। इस झगडे को मिटाने के लिए भगवान कहते हैं कि-
यो यो यां यां तनु भक्त: श्रद्धयार्चितुमिच्छति।
तस्य तस्याचलां श्रद्धा तामेव विद्धाम्यहम्।।
सतया श्रद्धय युक्तस्तस्याराधनमीहते।
लभते च तत: कामान्मयैव विहितान्हितान्।।
‘‘जो व्यक्ति जिस देव का भक्त होकर श्रद्धा से उसका पूजन करने की इच्छा करता है, उस व्यक्ति की उस देव के प्रति श्रद्धा को मैं दृढ करता हूँ’’। ‘‘श्रद्धा दृढ होने पर वह व्यक्ति उस देव का पूजन करता है और मेरे द्वारा निर्धारित उस व्यक्ति की वांछित कामनाएँ उसे प्राप्त होती है।’’
इस दृष्टि से देखने पर मूर्ति को परम्परा का समर्थन प्राप्त है, ऐसी हमारे आराध्य देव की मूर्ति में ही चित्त सरलता से एकाग्र हो सकता है। तुलसीदास जी इसके पहले लिख चुके हैं की मन क्रम वचन से एकाग्र होकर के हनुमान जी का ध्यान करना चाहिए। अब अगर हनुमान जी की हम ध्यान लगाते हैं तो सबसे पहले हमें हनुमान जी के हाथ में गदा दिखती है। जिससे वे शत्रुओं का संहार करते हैं। उसके बाद उनका वज्र समान मुख मंडल दिखता है। फिर उनका मजबूत शरीर और उनका आभामंडल दिखाई पड़ता है।
हम सभी जानते हैं कि उपासना में अनन्यता की आवश्यकता है। इस चौपाई द्वारा तुलसीदास जी शास्त्रीय मूर्ति पूजा का महत्व समझाते हैं। मूर्ति पूजा भारतीय ऋषि मुनियों द्वारा मानव सभ्यता को दी गई एक बहुत बड़ी भेंट है। मूर्ति पूजा के कारण हम आसानी से अपने इष्ट का ध्यान लगा सकते हैं। मूर्ति पूजा एक पूर्ण शास्त्र है। मानव अपने विकाराें को परख ले, उन्हे क्रमश: कम करे, शुद्ध करें, उदात्त करें और अन्त में विचार और विकार रहित स्थिति में आ जाए, जिसके लिए मूर्ति पूजा अत्यंत आवश्यक है। मूर्ति पूजा मनुष्य को शून्य से अनंत की ओर ले जाती है। मूर्ति पूजा की शक्ति अद्भुत है। यह मानव को अनंत से मिलाने का रास्ता बनाती है।
पूजा कर्मकांड नहीं है वरन कर्मकांड पूजा में व्यक्ति को व्यस्त करने का एक तरीका है। सर्व व्यापी परमात्मा को एक मूर्ति में बांध देना कहां तक उचित है। मूर्ति पूजा के विरोधी अक्सर यह बात कहते हैं, परंतु यह भी सत्य है चित्त को एकाग्र करने के लिए मूर्ति पूजा अत्यंत आवश्यक है।
जीवन में मन काफी महत्वपूर्ण है। मन है तो सुनना है, मन है तो बोलना है, मन है तो सब कुछ है। मन को शांत करने पर ही नींद आती है। इसलिए जीवन की प्रत्येक क्रिया में मन आवश्यक है। भोगार्थ भी मन है और मुक्ति के लिए भी मन है। मन ही मूर्ति का आकार लेता है तब उसे ही एकाग्रता कहते हैं। ऐसी एकाग्रता अधिक समय तक टिकनी चाहिए।
इस प्रकार मन को यदि भगवान जैसा बनाना हो तो भगवान का ध्यान करना जरुरी है। भगवान ने मूर्ति पूजा का महत्व (सगुण साकार भक्ति का महत्व ) गीता के बारहवें अध्याय में बहुत ही अच्छी तरह समझाया है-
मय्यावेश्य मनो ये मां नित्ययुक्ता उपासते।
श्रद्धया परयोपेतास्ते मे युक्ततमा मता:।।
(गीता 12-2)
जो मुझमें मन लगाकर और सदा समान चित्त वाले रहकर परम श्रद्धा से मेरी उपासना करता है, वह मेरी दृष्टि से सबसे श्रेष्ठ योगी है।
मन को एकाग्र करना कितना कठिन है यह बात गीता में अर्जुन ने भगवान श्रीमद्भगवद्गीता के छठे अध्याय के 34 में श्लोक में कही है-
चंचल हि मन: कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढम्।
तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम्।।
(गीता 6-34)
हे कृष्ण! मन बलवान, चंचल, बलपुर्वक खींचने वाला और आसानी से वश में नहीं हो सकता। इसलिए मन को नियंत्रण में रखना वायु को रोकने के बराबर है।’’
अर्जुन के इस प्रश्न का जवाब देते हुए भगवान कहते हैं-
असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम् ।
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृहते ।।
(गीता 6-33)
हे महाबाहु अर्जून! सचमुच मन चंचल है एव निग्रह करने में कठीन है। फिर भी सतत अभ्यास एवं वैराग्य से हे कुन्तीपुत्र! उसे वश में किया जा सकता है।
मन को एकाग्र करने के अभ्यास योग में पाँच बातें अपेक्षित है- 1. आदरबुद्धि, 2. दृढता, 3. सातत्य, 4. एकाकीभाव और 5. आशारहितता।
इस प्रकार मेरे विचार से स्पष्ट हो गया की गोस्वामी तुलसीदास जी ने यह कहना चाहा है कि आप हनुमान जी या कोई भी ऊर्जा पुंज को अपने दिल में धारण करें और वही ऊर्जा पुंज (हनुमान जी) आपको सभी कुछ प्रदान करेंगे। आपको इधर उधर नहीं भागना चाहिए।
आपके ऊपर अगर कोई संकट आएगा, विपत्ति आएगी, व्याधि आएगी तो सब कुछ हनुमानजी मिटा कर समाप्त कर देंगे। बस आपको हनुमान जी की एकाग्र भक्ति करनी है।
जय श्री राम
जय हनुमान