ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय
सेवानिवृत्त मुख्य अभियंता
प्रश्न कुंडली एवं वास्तु शास्त्र विशेषज्ञ
पूरा संसार अपितु पाताल से लेकर मोक्ष तक जिस अक्षर की सीमा नहीं। ब्रम्हा आदि देवता भी जिस अक्षर का सार न पा सके, उस आदि-अनादी से रहित निर्गुण स्वरुप ॐ के स्वरुप में विराजमान जो अदितीय शक्ति भूतभावन कालों के भी काल गंगाधर भगवान महादेव को प्रणाम करते है। अपितु शास्त्रों और पुरानो में पूजन के कई प्रकार बताये गए है, लेकिन जब हम शिव लिंग स्वरुप महादेव का अभिषेक करते है, तो उस जैसा पुण्य अश्वमेघ जैसे यज्ञों से भी प्राप्त नही होता।
स्वयं श्रृष्टि कर्ता ब्रह्मा ने भी कहा है की जब हम अभिषेक करते हैं तो स्वयं महादेव साक्षात् उस अभिषेक को ग्रहण करने लगते है। संसार में ऐसी कोई वस्तु, कोई भी वैभव, कोई भी सुख, ऐसी कोई भी वास्तु या पदार्थ नही है जो हमें अभिषेक से प्राप्त न हो सके। वैसे तो अभिषेक कई प्रकार से बताये गये हैं। लेकिन मुख्य पांच ही प्रकार हैं।
1. रूपक या षड पाठ- रूद्र के छः अंग कहे गये है इन छह अंग का यथा विधि पाठ षडंग पाठ कहा गया है।
शिव कल्प सूक्त- प्रथम हृदय रूपी अंग है।
पुरुष सूक्त- द्वितीय सर रूपी अंग है।
उत्तरनारायण सूक्त- शिखा है।
अप्रतिरथ सूक्त- कवचरूप चतुर्थ अंग है।
मैत्सुक्त- नेत्र रूप पंचम अंग कहा गया है।
शतरुद्रिय- अस्तरूप षष्ठ अंग कहा गया है।
इस प्रकार- सम्पूर्ण रुद्राष्टाध्यायी के दस अध्यायों का षडडंग रूपक पाठ कहलाता है। षडंग पाठ में विशेष बात है की इसमें आठवें अध्याय के साथ पांचवे अध्याय की आवृति नही होती है, कर्मकाण्डी भाषा मे इसे ही नमक-चमक से अभिषेक करना कहा जाता है।
2. रुद्री या एकादशिनि- रुद्राध्याय की ग्यारह आवृति को रुद्री या एकादिशिनी कहते है। रुद्रों की संख्या ग्यारह होने के कारण ग्यारह अनुवाद में विभक्त किया गया है।
3. लघुरुद्र- एकादशिनी रुद्री की ग्यारह अव्रितियों के पाठ को लघुरुद्र पाठ कहा गया है। यह लघु रूद्र अनुष्ठान एक दिन में ग्यारह ब्राह्मणों का वरण करके एक साथ संपन्न किया जा सकता है। तथा एक ब्राह्मण द्वारा अथवा स्वयं ग्यारह दिनों तक एक एकादशिनी पाठ नित्य करने पर भी लघु रूद्र संपन्न होते हैं।
4. महारुद्र- लघु रूद्र की ग्यारह आवृति अर्थात एकादशिनी रुद्री की 121 आवृति पाठ होने पर महारुद्र अनुष्ठान होता है। यह पाठ ग्यारह ब्राह्मणों द्वारा 11 दिन तक कराया जाता है।
5. अतिरुद्र- महारुद्र की 11 आवृति अर्थात एकादिशिनी रुद्री की 1331 आवृति पाठ होने से अतिरुद्र अनुष्ठान संपन्न होता है, ये
अनुष्ठात्मक
अभिषेकात्मक
हवनात्मक
तीनों प्रकार से किये जा सकते हैं। शास्त्रों में इन अनुष्ठानों का अत्यधिक फल है व तीनों का फल समान है। रुद्राष्टाध्यायी के प्रत्येक अध्याय में प्रथमाध्याय का प्रथम मंत्र ‘ॐ गणानां त्वा गणपति गुम हवामहे’ बहुत ही प्रसिद्ध है। यह मंत्र ब्रह्मणस्पति के लिए भी प्रयुक्त होता है।
द्वितीय एवं तृतीय मंत्र मे गायत्री आदि वैदिक छन्दोँ तथा छंदों में प्रयुक्त चरणो का उल्लेख है। पाँचवे मंत्र ‘यज्जाग्रतो से सुषारथि’ पर्यन्त का मंत्रसमूह शिवसंकल्पसूक्त कहलाता है। इन मंत्रों का देवता ‘मन’ है इन मंत्रों में मन की विशेषताएँ वर्णित हैं। परम्परानुसार यह अध्याय गणेश जी का है।
द्वितीयाध्याय मे सहस्रशीर्षा पुरुषः से यज्ञेन यज्ञमय तक 16 मंत्र पुरुषसूक्त से है, इनके नारायण ऋषि एवं विराट पुरुष देवता है। 17वें मंत्र अद्भ्यः सम्भृतः से श्रीश्च ते लक्ष्मीश्च ये छः मंत्र उत्तरनारायणसूक्त रुप मे प्रसिद्ध है। द्वितीयाध्याय भगवान विष्णु का माना गया है।
तृतीयाध्याय के देवता देवराज इन्द्र है तथा अप्रतिरथ सूक्त के रुप मे प्रसिद्ध है। कुछ विद्वान आशुः शिशानः से अमीषाज्चित्तम् पर्यन्त द्वादश मंत्रों को स्वीकारते हैं तो कुछ विद्वान अवसृष्टा से मर्माणि ते पर्यन्त 5 मंत्रों का भी समावेश करते है। इन मंत्रों के ऋषि अप्रतिरथ है। इन मंत्रों के द्वारा इन्द्र की उपासना द्वारा शत्रुओं का नाश होता है।
प्रथम मंत्र ॐ आशुः शिशानो, तीव्र गति करके शत्रुओ का नाश करने वाला, भयंकर वृषभ की तरह, सामना करने वाले प्राणियों को क्षुब्ध करके नाश करने वाला। मेघ की तरह गर्जना करने वाला। शत्रुओं का आवाहन करने वाला, अति सावधान, अद्वितीय वीर, एकाकी पराक्रमी, देवराज इन्द्र शतशः सेनाओं पर विजय प्राप्त करता है।
चतुर्थाध्याय मे सप्तदश मंत्र है जो मैत्रसूक्त के रुप मे प्रसिद्ध है। इन मंत्रों मे भगवान सूर्य की स्तुति है, ॐ आकृष्णेन रजसा में भुवनभास्कर का मनोरम वर्णन है। यह अध्याय सूर्यनारायण का है।
पंचमाध्याय में 66 मंत्र हैं, यह अध्याय प्रधान है, इसे शतरुद्रिय कहते है। शतसंख्यात रुद्रदेवता अस्येति शतरुद्रियम्। इन मंत्रों में रुद्र के शतशः रुप वर्णित है। कैवल्योपनिषद मे कहा गया है कि शतरुद्रिय का अध्ययन से मनुष्य अनेक पापों से मुक्त होकर पवित्र होता है। इसके देवता महारुद्र शिव है।
षष्ठाध्याय को महच्छिर के रुप में माना जाता है। प्रथम मन्त्र मे सोम देवता का वर्णन है। प्रसिद्ध महामृत्युञ्जय मंत्र ‘ॐ त्र्यम्बकं यजामहे’ इसी अध्याय में है। इसके देवता चन्द्रदेव है। सप्तमाध्याय को जटा कहा जाता है। उग्रश्चभीमश्च मंत्र में मरुत् देवता का वर्णन है। इसके देवता वायुदेव है।
अष्टमाध्याय को चमकाध्याय कहा जाता है। इसमें 29 मंत्र हैं। प्रत्येक मंत्र में ‘च’ कार एवं ‘मे’ का बाहुल्य होने से कदाचित चमकाध्याय अभिधान रखा गया है। इसके ऋषि ‘देव’ स्वयं है तथा देवता अग्नि है। प्रत्येक मंत्र के अन्त मे यज्ञेन कल्पन्ताम् पद आता है।
रुद्री के उपसंहार में ‘ऋचं वाचं प्रपद्ये’ इत्यादि 24 मंत्र शान्तयाध्याय के रुप मे एवं ‘स्वस्ति न इन्द्रो’ इत्यादि 12 मंत्र स्वस्ति प्रार्थना के रुप मे प्रसिद्ध है।
रुद्राभिषेक प्रयुक्त होने वाले प्रशस्त द्रव्य व उनका फल
1. जल से रुद्राभिषेक करने से वृष्टि होती है।
2. कुशोदक जल से अभिषेक करने से समस्त प्रकार की व्याधि की शांति होती है।
3. दही से अभिषेक करने से पशु की प्राप्ति होती है।
4. इक्षु रस से अभिषेक करने से लक्ष्मी की प्राप्ति होती है।
5. शहद अभिषेक करने से धन की प्राप्ति होती है।
6. घृत अथवा तीर्थ जल से अभिषेक करने से मोक्ष प्राप्ति होती है।
7. दूध से अभिषेक करने से प्रमेह रोग का विनाश एवं पुत्र प्राप्ति होती है।
8. जल की की धारा भगवान शिव को अति प्रिय है, अत: ज्वर के कोप को शांत करने के लिए जल धारा से अभिषेक करना चाहिए।
9. सरसों के तेल से अभिषेक करने से शत्रु का विनाश होता है। यह अभिषेक विवाद, मुकदमे, सम्पति विवाद, न्यायालय में विवाद को भी दूर करता है।
10.शक्कर मिले जल से अभिषेक करने से पुत्र की प्राप्ति होती है।
11. इत्र मिले जल से अभिषेक करने से शारीर की बीमारी नष्ट होती है।
12. दूध से मिले काले तिल से अभिषेक करने से सारे रोगों व शत्रु पर विजय प्राप्त होती है।
13. समस्त प्रकार के प्राकृतिक रसों से अभिषेक हो सकता है।
सार- उपयुक्त द्रव्यों से महालिंग का अभिषेक करने पर भगवान शिव अत्यंत प्रसन्न होकर भक्तों की तदन्तर कामनाओं का पूर्ति करते है। अत: भक्तों को यजुर्वेद विधान से रुद्रों का अभिषेक करना चाहिए। रुद्राध्याय के केवल पाठ अथवा जप से ही सभी कामनाओं की पूर्ति होती है।
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