ऐस्ट्रो ऋचा श्रीवास्तव
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अक्सर हम अपने पूर्वजों या घर परिवार के दिवंगत लोगों को “पितर” मान लेते हैं, लेकिन “पितरों” का परिचय एक विस्तृत विषय है। पितर वस्तुतः समस्त लोकों की चौरासी लाख योनियों में से एक योनि है। पितर विभिन्न लोकों में रहने वाली वे दिव्य आत्माएं और सामान्य जीवात्माएं हैं, जिनसे देवता और मनुष्य की उत्पत्ति हुई है।
पितर देवताओं की तरह ही शक्तिशाली और पुण्यफलदायी होते हैं। संतुष्ट और प्रसन्न होने पर अपने कुल को सुख, समृद्धि, सन्तति, धन और यश प्रदान करते हैं। जबकि अप्रसन्न होने पर सुख छीन लेते हैं। इनकी प्रसन्नता के बिना हमें देवताओं और नवग्रहों का भी आशीर्वाद नहीं प्राप्त हो सकता।
एक सम्पूर्ण लोक ही पितरों के लिए समर्पित किया गया है।
परिचय
मनुस्मृति में पितरों के सम्बंध में कहा गया है कि पितर ब्रह्मा जी के पुत्र मनु हैं और मनु के जो अत्रि, मरीचि, पुलत्स्य आदि ऋषि पुत्र हैं, उनके सभी संतानें पितृ गण कहे गए हैं।
मनुस्मृति में श्लोक है कि-
“ऋषिभ्यः पितरो जाता: पितृभे देवमानवा: ।
देवेभ्यस्तु जगत्सर्वे चरं स्थाण्वनुपूर्वश:।।”
अर्थात्- ऋषियों से पितर उत्पन्न हुए हैं। पितरों से देवता और मनुष्य उत्तपन्न हुए हैं। देवताओं से ये सम्पूर्ण जगत निर्मित हुआ है।
पितरों के प्रकार
मनुस्मृति, पद्मपुराण, मत्स्यपुराण, ब्रह्मवैवर्त पुराण आदि में पितरों की कई श्रेणियां बताई गई हैं। पर मूलतः हम पितरों को दो श्रेणियों में विभक्त कर सकते हैं- दिव्य पितर एवं पूर्वज पितर।
दिव्य पितर
दिव्य पितर वे पितर हैं जिनसे देवताओं और मनुष्यों की उत्पत्ति हुई है। ये सभी बहुत तेजस्वी और देवताओं के समान शक्तिशाली होते हैं। देवता भी इनका पूजन करते हैं। ये योगियों के योग को बढ़ाते है और आध्यात्मिक उन्नति देते हैं। इनके लिए विशेष रूप से श्राद्ध कर्म किया जाता है।
दिव्य पितरों के भी सात प्रकार कहे गए हैं
1- अग्निष्वात- इनकी उत्पत्ति मनु के पुत्र महर्षि मरीचि से हुई है। ये अत्यंत दिव्य और पूज्य हैं। ये देवताओं के पितर माने जाते हैं।
2- बहिर्षद- इनकी उत्पत्ति महर्षि अत्रि से हुई है। ये देव, दानव, यक्ष, गन्धर्व, किन्नर, सर्प, राक्षस, गरुड़ आदि के पितर हैं।
3- सोमसद- सोमसद महर्षि विराट के वंशज हैं। ये साधुओं और साधकों के पितर माने जाते हैं।
4- सोमपा- ये पितर महर्षि भृगु से उत्तपन्न हुए हैं। ये ब्राह्मणों के पितर माने जाते हैं।
5- हविष्मान- ये महर्षि अंगिरा के पुत्र हैं। इन्हें हविर्भुज भी कहते हैं। इन्हें क्षत्रियों का पितर कहा जाता है।
6- आज्यपा-यह महर्षि पुलत्स्य से उत्तपन्न हुए हैं। इन्हे वैश्यों का पितर कहा जाता है।
7- सुकालि- सुकालि महर्षि वसिष्ठ के पुत्र कहे गए हैं। यह शूद्रों के पितर कहे गए हैं।
उपर्युक्त सात प्रमुख दिव्य पितरों के अतिरिक्त और भी दिव्य पितर हैं। उदाहरण के लिए- “अग्निदग्ध”, “अनाग्निदग्ध”, “काव्य”, “सौम्य” इत्यादि।
पूर्वज पितर
इस श्रेणी में वे पितर शामिल होते हैं जो किसी या कुल के पूर्वज हैं, जिनसे कुल या कोई वंश उत्तपन्न हुआ हो। इन्हीं का एकोदिष्ट श्राद्ध , पिंड या तर्पण इत्यादि होता है। इनकी भी मुख्यतः 2 श्रेणियां हैं- सपिंड पितर एवं लेपभाग भोजी पितर।
सपिंड पितर
मृत पिता, दादा, परदादा ये तीन पीढ़ी तक के पूर्वज सपिण्ड पितर कहलाते हैं। ये पितर पिण्डभागी होते हैं।
लेपभागभोजी पितर
ये सपिण्ड पितरों से ऊपर तीन पीढ़ी तक के पितर होते हैं। जिनका निवास चंद्रलोक से ऊपर पितृलोक में होता है।
उपर्युक्त वर्गीकरण के अलावा “संतुष्ट और असंतुष्ट, “उग्र और सौम्य पितर”, “ऊर्ध्वगति और अधोगति” वाले पितरों की श्रेणियां भी होती हैं।