गंगा के घाट पर बैठे आंजिक्य ने जब पैर पानी में डाला तो लगा जैसे हजार बिच्छुओं ने एक साथ डंक मार दिया हो। पानी तीर की तरह चुभ रहा था। आंजिक्य ने पैर बाहर खीच लिया। एक जमाने में आंजिक्य के सारे सपनों के गवाह रहे इलाहाबाद के इस घाट पर आज वे पूरे चार साल बाद आये थे।
दुनिया जिस घाट पर एक बार डुबकी लगा कर अपने पाप धोने का प्रयास करती है, एक जमाने में वहां बैठ कर आंजिक्य और वर्तिका ने अपने जीवन के सारे खूबसूरत सपने देखे थे। सप्ताह के सात दिनों में पांच दिनों की शाम दोनों इसी घाट पर गुजारा करते थे। वर्तिका जौनपुर में पढ़ती थी और आंजिक्य इलाहाबाद में। इस घाट पर बैठना वर्तिका को बहुत पसंद था, सो वह रोज जौनपुर से इलाहाबाद आ जाती और पता नहीं किस तेजी से आंजिक्य भी पहुच जाते थे। आंजिक्य के घर से इलाहाबाद की दुरी इतनी कम भी नहीं है कि कोई आदमी रोज चले जाने की सोचे भी, पर वर्तिका का स्नेह रोज आंजिक्य को खीच ले जाता था।
वर्तिका और आंजिक्य दोनों अलग जिले के थे। वर्तिका के घर किसी उत्सव में गए आंजिक्य ने पहली बार वहीं देखा था वर्तिका को, वे इंटरमीडियट के दिन थे। फिर पता नहीं क्या संयोग बना कि दोनों अच्छे दोस्त बन गए। यह अच्छी दोस्ती प्यार में कब और कैसे बदली यह न आंजिक्य मिश्रा को पता चला न ही वर्तिका पांडे को, दोनों बस यह समझ पाये कि वे एक दूजे का हाथ पकड़ कर चलते हुए ही सबसे ज्यादा ख़ुशी पाते हैं।
वर्तिका को पढाई के बाद दो काम सबसे अच्छे लगते थे, पहला- इलाहाबाद में गंगा के घाट पर बैठ कर मछलियों को आटे की गोलियां खिलाना और दूसरा- आंजिक्य से चइता गवाना। और आंजिक्य के जो दो पसंदीदा काम थे। वे थे, वर्तिका के साथ घूमना और वर्तिका के साथ घाट पर बैठना।
आंजिक्य का गला बहुत सधा हुआ था और वे गाते भी बहुत अच्छे थे। जब भी वर्तिका गाने को कहती तो आंजिक्य इतना टूट कर गाते कि लगता जैसे उनका गाना सुनने के लिए वक्त ठहर गया हो। कई बार भादो के महीने में आंजिक्य को चइता गाते सुन कर घाट पर टहलने वाले लोगों ने मजाक उड़ाया, पर आंजिक्य के लिए तो वर्तिका की इच्छा ही सर्वोपरि थी।
दो वर्ष बीत गए। अब आंजिक्य और वर्तिका के सपनों ने बड़ा आकार लेना शुरु कर दिया था। गंगा के इसी घाट पर बैठ कर दोनों ने एक दिन तय किया कि अब बात अपने घरवालों को बता दी जाय। अगले दिन से वर्तिका के कॉलेज में छुट्टी हो रही थी, सो दोनों ही अपने अपने घर चले आये। गांव के लड़के लड़कियां सामान्यतः अपने प्रेम की बात अपने घरवालों से नहीं बता पाते, पर वर्तिका और आंजिक्य को उनके प्रेम ने बहुत शक्तिशाली बना दिया था। घर आने के साथ ही दोनों ने अपने घरवालों से अपनी बात कह दी थी। आंजिक्य अपने परिवार के दुलारे थे और किसी को उनकी आँखों में आंसू देखना गवारा नहीं था, सो थोड़े से प्रश्नों के बाद सभी मान गए, पर वर्तिका के साथ वही हुआ जो भारतीय समाज सामान्यतः करता आया है। जो अधिकार हम अपने बेटों को यूँ ही दे देते हैं वही अधिकार बेटियों को देने में हमारी इज्जत जाने लगती है। वर्तिका के पिता को आंजिक्य पसंद थे और यदि अपनी मर्जी से यही विवाह तय करते तो दस लाख दहेज़ देने के बाद भी खुद को भाग्यशाली समझते, पर यहां तो बेटी ने प्यार कर के आंजिक्य के ऊपर धब्बा लगा दिया था। पूरे घर ने यह प्रस्ताव नकार दिया। नए नए बहाने खोजे जाने लगे। इतने नजदीक में शादी नहीं हो सकती, वो अच्छे ब्राम्हण नहीं माने जाते, लोग क्या कहेंगे वगैरह वगैरह… पूरी छुट्टियों में वर्तिका ने अपने परिवार को मनाने का पूरा प्रयास कर लिया पर कोई फायदा नहीं हुआ।
छुट्टियों के बाद जब फिर आंजिक्य और वर्तिका मिले तो वर्तिका ने आंजिक्य को सब बताया और चुपचाप शादी कर लेने की बात कही, पर आंजिक्य को यह पसंद नहीं था। आंजिक्य को विश्वास था कि वर्तिका के पिता मान जायेंगे। वे घर आये और उन्होंने अपनी माँ को वर्तिका के घर भेजा। माँ ने वर्तिका के पिता को समझाने की बहुत कोशिश की पर कोई फायदा नहीं हुआ। बेटे के आंसुओं को याद कर माँ बार-बार जाती पर हर बार नया बहाना सुन कर वापस लौट आती।
आंजिक्य एक अजीब दोराहे पर किंकर्तव्यविमूढ़ से खड़े थे। इधर हर प्रयास कर हार गए थे फिर भी कोई उम्मीद नहीं दिख रही थी, उधर बार बार वर्तिका शादी कर लेने के लिए कहती पर आंजिक्य का मन नकार जाता।
धीरे धीरे आंजिक्य खुद को वर्तिका से दूर करने लगे। पहले मिलना बन्द हुआ, फिर फोन उठाना बन्द हुआ और कुछ दिनों बाद आंजिक्य ने मोबाईल नंबर बदल लिया। वर्तिका का आंजिक्य से मिलने या बात करने का हर प्रयास अब विफल हो रहा था और उसे आंजिक्य की कोई खबर नहीं मिल पाती थी। इस बीच एक दिन उसे आंजिक्य के पिता की मृत्यु का पता चला। उसने आंजिक्य से बात करना चाहा पर आंजिक्य ने मोबाईल नम्बर बदल लिया था।
और उसके कुछ ही दिन बाद आंजिक्य की शादी तय होने की बात पता चली। अब वर्तिका का धीरज टूट गया था और अगले ही दिन वह सारा लिहाज छोड़ कर आंजिक्य के घर पहुंच गयी थी। वर्तिका को देख कर रो उठी आंजिक्य की माँ घंटो तक सिसकती रही पर पत्थर हो चुके आंजिक्य ने बस इतना ही कहा- मैं तुम्हारा अपराधी हूँ वर्तिका, मुझे माफ़ कर देना और भूल जाना। डाल से टूट कर मुरझाई हुई वर्तिका प्रेम में हार कर वापस लौट गयी।
तीन साल बीत गए। आंजिक्य की शादी हो गयी थी और अब उनका एक बेटा भी था। वर्तिका का प्रेम उनके हृदय में था या नहीं यह कोई नही जानता पर विवाह के बाद कभी घर में किसी ने उनके मुँह से वर्तिका का नाम नहीं सुना था।
तीन साल से समय की सड़क पर चुपचाप चलते आंजिक्य के घर वर्तिका की शादी का कार्ड आया था और आज जाने कैसे उनके कदम उनको फिर गंगा के घाट पर खीच ले गए थे।
आधे घंटे तक चुपचाप मछलियों को आटे की गोलियां खिलाते रहे आंजिक्य मिश्रा। फिर खड़े हो कर जैसे बुदबुदाने लगे- गंगा मईया, तुम और वह ईश्वर साक्षी है; इस जीवन में सिर्फ और सिर्फ उसी को प्यार कर पाया हूँ। पर क्या करूँ, सबकुछ बर्दाश्त कर सकता था पर उसे बदनाम होते नहीं देख सकता। अगर इस जीवन में मैंने जो भी पुण्य किया हो वह उसे मिल जाय। उसके हिस्से का भी मैं रो चूका हूँ, अब कभी उसके जीवन में दुःख का एक पल भी मत देना भगवान।
कहते कहते आंजिक्य की आँखों से दो बून्द आंसू गिरे और युगों से पापियों का पाप धो कर मैली हो चुकी गंगा उन दो आंसुओं में मिल कर पवित्र हो गयी।
सीढ़ियों से ऊपर चढ़ते आंजिक्य ने आज चार साल बाद फगुआ कढ़ाया-
सगरो चइत बीति गइलें, हो रामा… पिया नाही अइले…
-शिवम मिश्रा
मुंबई, महाराष्ट्र