कितनी रातों की
सहर नहीं देखी है मैंने
कितने तारे डूब गये
और कितने सूरज निकल गये
मैं शून्य से अँधकार में डूबी
बैठी रही एकल पथ पर
तुमसे प्रणय के स्वप्न संजोए
अनुनय विनय के कर जोडे़
कितनी मनुहारों ने दम तोडा़
कितने मंतर फूँके
अब वीरान है ये रात अकेली
संकुचित तन की ताप नवेली
मन में संशय उबल रहा है
विश्वास परंतु प्रबल रहा है
लौटेगा वो पल सलोना
उनकी बातें और
फिर उनका होना
-निधि भार्गव मानवी