बस तुम्हारी मौजूदगी,
ठहरा सा वक्त,
हाथों में ले हाथ,
मुस्कुराते लब,
नैनों से नैनों की तकरार,
कुछ सुनाने को
बेताब धड़कनें,
मचलती गरम साँसों.
का आमना सामना,
सिहरते जज़्बातों का
आदान-प्रदान,
पलकों से पलकों में घुलती
प्रेम की मौन स्वीकृति,
मधुर मुस्कान से
होते हज़ारों वादे,
सिर्फ और सिर्फ
फुरसत के कुछ दिन
कोने की टेबल,
एक कप कॉफी
मैं और तुम
बस इतना ही तो लालच था
कब, कहाँ और कैसे?
पैदा हुआ संशय,
मन भर गया था या
प्रेम, झूठ की बुनियाद पर!
प्रेम का यह रूप
झकझोरता मन को
दे गया कुछ
अनसुलझी सी उलझनें
और अब
सुनामी के बाद
बिखरे समुद्र तट सा
हो चुका है
भावहीन, स्तब्ध, रेतीला
ये एकाकी मन…
-किरण मिश्रा
नोयडा