औरत के बस शरीर का ही
बलात्कार नहीं होता
उसके मन का भी बलात्कार होता है
बार-बार निर्वस्त्र होती है
वो भी उन्ही रिश्तों के बीच
जिन्हें अपना बताकर उसकी
झोली में डाल दिया जाता है।
छीन लिया जाता है उससे
उसके स्वाभिमान का गहना
नोच लिया जाता है
उसके हृदय से
उसकी सोच के नाजुक वक्ष को
रौंद दिया जाता है
उसके जज्बातों के अधर को
कि फिर ये कभी न मुँह खोल पाए
अपने मान सम्मान के लिए
कभी नहीं बोल पाए।
फिर लगाए जाते हैं
उसपे हजारों लांछन
कि तुमने बहु बनके, पत्नी बनकर
दिया ही क्या है हमें…
उसकी गलती बस इतनी सी होती है
कि वह बोलना जानती है
बस इसलिए
कुंठित कर छोड़ दिया जाता है
उसके मन को
ठीक वैसे ही जैसे
बलात्कार के बाद काट देते हैं जुबान
कि वो फिर कुछ न बोल पाए
अपनी कुंठा में डूबते-डूबते
हमेशा के लिए खामोश हो जाए।
– रुचि किशोर