रात में पसरती ठण्ड के बाद सूर्योदय होते ही
प्रकाश तीव्र वेग से जमा लेता है आधिपत्य अपना
हॉस्टल के बरामदे में…
तब निकलतें है झोला डाले अपने सपनों का पुरा करने की चाह में
दिन भर दौडते है अनवरत पानीपत के मैदानों से
अनुच्छेद के रास्ते पामीर के पठार तक
शाम हो जाती है भर जाती है गैलेरी अँधेरे से
तब आते है उदासीन चेहरों के साथ अपने लाक्षागृह में
कुछ बात बन जाये गर दरमन बनकर तुुम आओ
थक गये हो थोड़ा आराम कर लो कॉल पर यह बात कह पाओ
तब भग जाये विषाद कुछ इस तरह बाशिंद के चेहरे से
गर्दिश से निकलकर उठेंगे जब भी..
दिवाकर भी लगेगा फीका
हमारी सफलता की चमक से
चाँद भी ठिठुरेगा उस दिन इन पसरती रातों की ठण्ड से
-जितेन्द्र कुमार बंशीवाल